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कसा पाहु
कर्मग्रन्थों का उपयोग किया था, उसमें एक कसायपाहुड भी था । पञ्चसंग्रह के टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है कि इस पंचसंग्रह में शतक, सप्ततिका, कषायप्राभृत, सत्कर्म और कर्मप्रकृति इन पाँच ग्रन्थों का संग्रह है
"पंचानां शतक सप्ततिका त्रषायप्राभृत-सत्कर्म-कर्म प्रकृतिलक्षणानां ग्रन्था
नाम् । "3•
इन सन्दर्भों से ज्ञात होता है कि लगभग दशमी शती तक अर्धमागधी परम्परा में कसायपाहुड की मान्यता रही है ।
अनुसन्धान की सम्भावनायें
शौरसेनी या दिगम्बर परम्परा में कषायपाहुड के गाहासुत्त, चुण्णिसुत्त तथा जयधवला जैसी विशालकाय टीका के प्रकाश में आने से कषायपाहुड की एक अविच्छिन्न परम्परा अध्ययन-अनुशीलन के लिए उपलब्ध है । अर्धमागधी परम्परा के प्रज्ञापना, कम्मपर्याड, पञ्चसंग्रह आदि ग्रन्थों यह स्पष्ट है कि अर्धमागधी या श्वेताम्बर परम्परा में भी दशवीं शती तक कपायपाहुड की मान्यता रही है ।
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दोनों ही परम्पराएँ कषायपाहुड का मूल स्रोत दृष्टिवाद के पूर्व नामक महान् प्राचीन आगमों को मानती हैं। इससे यह स्पष्टरूप से कहा जा सकता है कि कषायपाहुड की मान्यता अखंड जैन श्रमण परम्परा में प्राचीन काल से चली आयी और दिगम्बर श्वेताम्बर परम्परा भेद होने के बाद भी बहुत काल तक चलती रही । इस बात के पूर्वाग्रह से मुक्त होकर कि अमुकग्रन्थ से अमुक ग्रन्थ में गाथाएँ ली गयी हैं, यदि व्यापक दृष्टिकोण से अनुशीलन किया जाये तो दोनों परम्पराओं के आगमों से प्राचीन कषायपाहुड के मूल गाथा सुत्त और उनकी परम्परा का व्यवस्थित स्वरूप और ऐतिहासिक क्रम निश्चित किया जा सकता है। बहुत जटिल और श्रमसाध्य होने पर भी यह कार्य असम्भव नहीं है । इस प्रकार के अनुसन्धान कार्य आरम्भ होने पर यह आशा की जा सकती है कि जैन श्रमण परम्परा की उन सैद्धान्तिक और दार्शनिक मान्यताओं का पुनराकलन सम्भव है, जो सम्प्रदायों में विभक्त होने के पूर्व हजारों-हजार वर्षों के चिन्तन, मनन और प्रयासों के आधार पर अर्हतों तीर्थंकरों और श्रुतकेवलियों ने प्रतिष्ठापित की थीं ।
पाहु की गाथाओं के प्रत्येक शब्द का अनुक्रम प्रथम बार इस संस्करण में प्रस्तुत किया गया है । इससे प्राकृत के प्राचीन शब्द-रूपों, वैकल्पिक प्रयोगों, विभक्तियों, सन्धि, समास के नियमों, कृदन्त और तद्धित के प्रत्ययों, संज्ञा, सर्वनाम तथा क्रियाओं आदि का जो स्वरूप उपस्थित होता है, उससे कषायपाहुड के भाषायी अनुशीलन के साथ प्राकृतों के भाषाशास्त्रीय अध्ययन को बल मिलेगा ।
३०. पंचसंग्रह टीका, पृ० ३ ॥
संकाय पत्रिका - २
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