SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिचय १९८७ ई० में रिचार्ड मॉरिश ने "सद्धम्मोपायन" ग्रन्थ का रोमन लिपि में सम्पादन किया था और पालि टेक्स्ट सोसायटी पत्रिका में उसका प्रकाशन हुआ था। श्री मॉरिश ने इसके सम्पादन के लिए सिंहली लिपि में लिखित एक हस्तलेख का उपयोग किया था। यह हस्तलेख ब्रिटिश म्युजियम ओरियन्टल नम्बर २२४८ से उन्होंने प्राप्त किया था। पुनः सिंहली लिपि में लिखित पुस्तक, जिसका सम्पादन अनुवाद के साथ बतुबन्तुदेव पण्डित ने किया था, जिसका मुद्रण एवं प्रकाशन सिलोन (श्रीलंका) के शास्त्राधार प्रेस द्वारा १८७४ ई० में हुआ था, उन्होंने उससे मिलाया था। इस सन्दर्भ में उनका कहना है कि सिंहली लिपि में हस्तलिखित पुस्तक तथा सिंहली लिपि में छपी पुस्तक में कोई विशेष अन्तर नहीं था। इस सन्दर्भ में रिचार्ड मॉरिश ने जो सूचना दी है वह इस प्रकार है : “For the present text of the Saddhammopāyana' I have had the use of a Ms. (in Sinhalese writing) in the British Musium, oriental No. 2248. and the very accurate edition (in Sinhalese character) with sann by Batuwantudeva Pandita, Printed at the Sastrādhara Press, 1874. The diffrences between the Ms. and ihe Printed text are not very numerous or important. I have distinguished between va = eva ard va=iva by printed va whenever it stands for eva. रिचार्ड मॉरिश द्वारा सम्पादन के बाद भी 'सद्धम्मोपायन' का नागरी लिपि में प्रकाशन नहीं हो पायो। इसलिए यह यहाँ देवनागरी लिपि में प्रथम बार प्रस्तुत किया जा रहा है। इस ग्रन्थ का बौद्ध जगत् में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इसमें बुद्ध प्रतिपादित नैतिक मार्गों का उल्लेख है। बौद्ध धर्म के सभी प्रधान विषय इसमें गाथाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किये गये हैं । सद्धम्मोपायन बौद्धधर्म के नैतिक मार्ग के गुणों का ६२९ गाथाओं में वर्णन प्रस्तुत करता हैं । विषय नवीन नहीं है, पर शैली ओजःपूर्ण एवं मौलिक है। इसे दो भागों में बांटा जा सकता है :-दुराचार के दुष्परिणाम (२) सदाचार की प्रशंसा या उसके सुपरिणाम । साथ ही बौद्ध धर्म के सभी मौलिक सिद्धान्तों का समावेश भी इसमें हो गया है। इन सिद्धान्तों का वर्णन अत्यन्त प्रभावशाली एवं मननशील ढंग से कवि ने उपन्यस्त किया है । १९ शीर्षकों के अन्दर पाप के दुष्परिणाम, पुण्य फल, दान प्रशंसा, शील प्रशंसा, अप्रमाद आदि का काव्यमय वर्णन अत्यन्त हृदयग्राही है। • संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy