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________________ १६ श्रमण विद्या पुरुष के हृदय में एक प्रकार का कम्पन होता है और जिससे उद्वेलित होकर व्यक्ति उसके दुःख के विनाश की चेष्टा करता है ( अटू० १५७ पृ० ) । ऐसा व्यक्ति पर के दुःख को सहन नहीं कर सकता और उसके अपनयन में तदाकाराकारित हो जाता है । महायान में यह करुणा 'अप्रमाण' हो जाती है, क्योंकि उसकी साधना का प्रारम्भ दूसरों के दुःख और दुःख कारणों को मिटा देने के प्रणिधान से होता है । इस प्रकार वह सर्वप्रथम प्रणिधि लेता है और फिर उसी दिशा में प्रस्थान कर जाता है । महायान में यह करुणा अपरिमित इसलिए हो जाती है कि वह किसी व्यक्ति को नहीं देखती, अपितु दुःखी जीवप्रवाह को देखती है । अर्थात् कारुणिक के समक्ष दुःखी व्यक्ति नहीं रहता, अपितु दुःख और उसका प्रवाह रहता है, जिसे वह हिंसा का रूप समझता है और उसे दूर करना चाहता है । जब दयालु मनुष्य के सामने व्यक्ति की सीमा रहती है, तब तक उसकी दया का आकार सीमित रहता है, फलतः वह दया महाकरुणा की कोटि में नहीं आती। जब संसार में दुःखसन्तान के दर्शन से उसके विघात के लिए चेतना उत्पन्न हो, उसे ही 'अविहिंसा' या 'करुणा' कहते हैं । इसे वस्त्वालम्बना करुणा अथवा धर्मालम्बना करुणा कहते हैं । इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए धर्मकीति प्रमाणवार्तिक में कहा है " वस्तुधर्मो दयोत्पत्तिर्न सा सत्वानुरोधिनी ।" (१११९७ ) “दुःखसन्तानसंस्पर्शमात्रेणैवं दयोदयः । " (१११९८) इस अवस्था में मोह अथवा अज्ञान और द्वेष अथवा अमैत्री इसलिए उत्पन्न नहीं हो सकती कि उसके आलम्बन की सीमाएँ व्यक्ति आदि की दृष्टि से ही समाप्त हो गई हैं । इसीलिए एक सीमित दृष्टि से दया को अंगीकार करने वालों के प्रति महायानियों की यह शिकायत है कि ऐसे लोगों की दृष्टि में धर्म और मुक्ति स्वार्थ का साधन मात्र है । इनके द्वारा कोई लोकोपकार का महान् कार्य नहीं हो सकता । इसके विपरीत आदर्श व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता और स्वार्थ का लोभ छोड़कर अपने को लोक के अधीन कर देता है । आचार्य धर्मकीर्ति यह स्पष्ट करते हैं कि मन्द करुणा से परार्थता का महान् उद्देश्यपूर्ण नहीं हो सकता Jain Education International " मन्दत्वात् करुणायाश्च न यत्नः स्थापने महान् । तिष्ठन्त्येव पराधीना येषां तु महती कृपा ॥" (१२०० ) यह महापुरुष लोक का अकारण वत्सल है, उसने अपने को दूसरों का उपकरण बना दिया है । लोक अङ्गी है, वह अंग है; वह संसार से दुःख के विनाश के लिए निरन्तर महान् यत्न में निरत है । इस कार्य में उसे इतना आनन्द आता है कि वह निर्वाण को तुच्छ और नीरस समझने लगता है "मोक्षेणारसिकेन किम् ।" अहिंसा संकाय पत्रिका - १ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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