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श्रमण विद्या जिससे तीर्थकरत्व आदि पुण्य कर्म का संचय होता है वह चितिकर्म है। अर्हत आदि का बहुवचन युक्त शब्दोच्चारण एवं चन्दनादि अर्पण करना पूजाकर्म है। तथा जिससे कर्म दूर किया जाता है अर्थात् जिसके द्वारा कर्मों का संक्रमण उदय, उदीरणा आदि रूप परिणमन करा दिया जाता है ऐसे कार्य को विनयकर्म कहते हैं। इसी को शुश्रूषा भी कहते हैं।' विनय की प्रशंसा करते हुए मूलाचारकार ने कहा है--विनय पंचमगति (मोक्ष) का नायक', श्रुताभ्यास (शिक्षा) का फल है। इसके बिना सारी शिक्षा निरर्थक है। क्योंकि विनय सभी कल्याणों का फल भी है। ४. प्रतिक्रमण
प्रमादपूर्वक किए गए अतीत कालीन दोषों का निराकरण करना प्रतिक्रमण (पडिक्कमण) है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से व्रतों में हुए अतीतकालीन अपराधों (दोषों) का निन्दा एवं गर्हा-पूर्वक शोधन या दोषों का परित्याग करना प्रतिक्रमण है ।" आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि-सावद्य (पाप) प्रवृत्ति में जितने आगे बढ़ गये थे, उतने पीछे हटकर पुनः शुभयोग रूप स्व-स्थान में अपने-आपको लौटा लाना प्रतिक्रमण है। भेद
प्रतिक्रमण के सात भेद हैं-दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और औत्तमार्थ ।'
१. दैवसिक-सम्पूर्ण दिन में हुए अतिचारों की आलोचना प्रत्येक सन्ध्या को करना दैवसिक प्रतिक्रमण है।
२. रात्रिक-रात्री संबंधी दोषों के निराकरण हेतु रात्रि के पश्चिम भाग में अर्थात् ब्रह्ममुहूर्त में जो प्रतिक्रमण किया जाता है वह रात्रिक प्रतिक्रमण है।
१. मूलाचार वृत्ति ७१७९. २. मूलाचार ५।१६७. ३. वही ५१८८. ४. अतीतकालदोष निर्हरणं प्रतिक्रमणम् ।---मूलाचार वृत्ति १।२७. ५. दवे खेत्ते काले भावे य कयावराहसोहणयं ।।
णिदणगरहणजुत्तो मणवचकायेण पडिक्कमणं ।। मूलाचार १.२६. ६. योगशास्त्र तृतीय प्रकाश. ७. पडिकमणं देवसियं रादिय इरियापधं च बोधव्वं ।।
पक्खिय चादुम्मासिय संवच्छरमुत्तमट्टं च ॥ मूलाचार, वृत्तिसहित ७।११६.
संकाय पत्रिका-१
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