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________________ जैन परम्परा में श्रमण और उसकी आचार संहिता २७७ स्थावर एवं त्रस - सभी प्रकार के जीवों के प्रति समभाव युक्त है उसका सामायिक स्थायी होता है ।' जो स्व तथा अन्य आत्माओं में सम है, सम्पूर्ण स्त्रियों में जिसकी मातृवत् दृष्टि है, प्रिय अप्रिय तथा मान आदि में सम है, उस श्रमण को सामायिक अवस्था प्राप्त होती है । तथा राग-द्वेष से विरत, सब कार्यों में समता रखने वाला, द्वादशांग एवं चतुर्दश पूर्व में श्रद्धायुक्त आत्मा को उत्तम सामायिक होता है । क्योंकि सादृश्य रूप से द्रव्य, गुण और पर्याय तथा इनकी सत्ता और सिद्धि को जानना ही उत्तम सामायिक है | भेद नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये निक्षेप दृष्टि से सामायिक के छह भेद हैं। क्योंकि इसमें इन छह का आलम्बन लिया जाता है। इनमें शुभअशुभ नाम सुनकर राग द्वेष न करना नाम सामायिक है । सामायिक में स्थित श्रमण को यदि कोई शुभाशुभ शब्दों का प्रयोग करता है तो उसे चिन्तन करना चाहिए कि समता मेरा स्वभाव है अतः मुझे राग-द्वेष से लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं हैं, क्योंकि शब्द मेरा स्वरूप नहीं है ।" शुभाशुभ आकार प्रमाण अप्रमाण युक्त, सम्पूर्ण अवयत्रों से पूर्ण-अपूर्ण तदाकारअतदाकार स्थापित मूर्तियों में राग-द्वेष न करना स्थापना सामायिक है । स्वर्ण-चाँदी, माणिक्य, मोती, मिट्टी, लकड़ी, लोहा आदि द्रव्यों में राग-द्वेष रहित होना द्रव्य सामायिक है । रम्य क्षेत्रों में राग तथा रूक्ष क्षेत्रों में द्वेष न करना क्षेत्र सामायिक है । छहों ऋतुओं, कृष्णपक्ष एवं शुक्लपक्ष तथा दिन-रात आदि काल विशेषों में राग-द्वेष रहित होना काल सामायिक है । १. मूलाचार ७१२५, नियमसार. १२६. ३. वही ७।२१, २२. ४. णामट्ठवणा दव्वे खेत्ते काले तहेव भावे य । सामाइ एसोणिक्खेओ छव्विओ णेओ ।। वही ७।१७. ५. अनगारधर्मामृत ८२१. Jain Education International २. मूलाचार ७।२०, २६. For Private & Personal Use Only संकाय पत्रिका - १ www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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