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________________ २६४ श्रमण विद्या पाँच पापों के दोषों को जानकर आत्मोत्कर्ष के उद्देश्य से इनके त्याग या इनसे विरति की प्रतिज्ञा लेकर पुनः कभी उनका सेवन न करने को व्रत कहते हैं । अकरण, निवृत्ति, उपरम और विरति - ये सभी एक ही अर्थ के वाचक हैं | हिंसादिक पाँच असत्प्रवृत्तियों का त्याग व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार तो कर सकता है किन्तु सभी प्राणी इनका सार्वत्रिक और सार्वकालिक त्याग एक समान नहीं कर सकते । अतः इन असत्प्रवृत्तियों से एकदेश निवृत्ति को अणुव्रत और सर्वदेश निवृत्ति को महाव्रत कहा जाता है । वस्तुतः व्रत अपने आप में अणु या महत् नहीं होते । ये विशेषण तो व्रत के साथ पालन करने वाले की क्षमता या सामर्थ्य के कारण लगते हैं । जहाँ साधक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पाँच व्रतों के समग्र पालन की क्षमता में अपने को पूर्ण समर्थ नहीं पाता अथवा महाव्रतों के धारण की क्षमता लाने हेतु अभ्यास की दृष्टि से इनका एकदेश पालन करता है तो उसके ये व्रत अणुव्रत तथा वह अणुव्रती श्रावक कहलाता है । तथा जब मुमुक्षु साधक अपने आत्मबल से इन व्रतों के धारण और निरतिचार पालन में पूर्ण समर्थ हो जाता है तब उसके वही व्रत महाव्रत कहे जाते हैं तथा वह महाव्रती श्रमण कहलाता है । हिंसाविरति आदि पांच महाव्रतों का विवेचन इस प्रकार है १. हिंसाविरति - अहिंसा प्रथम महाव्रत हिंसाविरति है । इसका और अधिक प्राचीन रूप " पाणातिपातवेरमण" है ।" इसका स्वरूप "अहिंसा" शब्द द्वारा अभिहित हुआ है । अहिंसा तात्पर्य पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस - ये छह कायिक जीव, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु, योनि – इनमें सब जीवों को जानकर उठने-बैठने, कायोत्सर्ग आदि क्रियाओं में हिंसा आदि का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है। अहिंसा वस्तुतः हिंसा का निषेधात्मक शब्द है । 'हिंसा' शब्द हिंस धातु से बना है, जिसका अर्थ है - वध करना, घायल करना, आताप पहुँचाना या दुःख देना । कषाय की भावना के वशीभूत होकर मन, वचन और कायरूप योग से किसी १. २. पढमे भंते ! महत्वए पाणाइवायाओ वेरमणं - दशवैकालिक. ४-११ कायें दियगुणमग्गणकुलाउजोणीसु सव्वजीवाणं । णाऊण य ठाणादिसु हिंसादिविवज्जणमहिंसा । मूलाचार १-५. संकाय पत्रिका - १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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