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________________ जैन परम्परा में श्रमण और उसकी आचार संहिता २६३ ५. सात अन्य मूलगुण :-लोच (केशलोच), आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तघर्षण, स्थितभोजन और एकभक्त. __ उपयुक्त मूलगुण श्रमणधर्म की आधारशिला हैं। सम्पूर्ण मुनिधर्म इन अट्ठाईस मूलगुणों से सिद्ध होता है । इनमें लेशमात्र की न्यूनता साधक को श्रमणधर्म से च्युत बना देती है, क्योंकि श्रमण के लिए आत्मोत्कर्ष हेतु निरन्तर प्रयत्नशील रहना ही श्रेयस्कर होता है। शरीर चला जाए, यह उसे सहर्ष स्वीकार होता है, पर साधना या संयमाचरण में जरा भी आँच आए, यह किसी भी अवस्था में उसे स्वीकार्य नहीं। जीवन के जिस क्षण मुमुक्षु श्रमणधर्म स्वीकार करते हैं, उस क्षण वे “सावज्जकरणजोगं सव्वं तिविहेण तियरणविसुद्ध वज्जति” अर्थात् सभी प्रकार के सावद्य (दोष युक्त) क्रिया रूप योगों का मन, वचन, काय तथा करने, कराने और अनुमोदन से सदा के लिए त्याग कर देते हैं । मूलगुणों के पालन की इसलिए भी महत्ता है क्योंकि जो श्रमण इन टूलगुणों को छेदकर (उल्लंघनकर) 'वृक्षमूल' आदि बाह्ययोग करता है, मूलगुण विहीन उस साधु के सभी योग किसी काम के नहीं। मात्र बाह्ययोगों से कर्मो का क्षय सम्भव नहीं होता।२ प्राचीन वाङ्मय में श्रमण के मूलगुणों का विवरण निम्नप्रकार उपलब्ध होता है-- महाव्रत उपर्युक्त अट्ठाईस मूलगुणों में सर्वप्रथम पञ्च महाव्रत का उल्लेख है। व्रत से तात्पर्य हिंसा, अनुत (झूठ), स्तेय (चोरी), अब्रह्म तथा परिग्रह--इनसे विरति (निवृत्ति) होना। विरति अर्थात् जानकर और प्राप्त करके इन कार्यों को न करना। प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है वह भी व्रत है। अथवा यह करने योग्य है और यह नहीं करने योग्य है-इस प्रकार नियम करना भी व्रत है ।" इस प्रकार हिंसा आदि १. मूलाचार ९१३४. २. मूलं छित्ता समणो जो गिण्हादी य बाहिरं जोगं । बाहिरजोगा सब्जे मूल विहूणस्य किं करिस्संति ॥ मूलाचार १०।२७. ३. हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्-तत्त्वार्थसूत्र ७-१. ४. विरति म ज्ञात्वाभ्युपेत्याकरणम्-- तत्त्वार्थाधिगम भाष्य ७-१. ५. व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः, इदं कर्त्तव्यमिदं न कर्त्तव्य मिति । -सर्वार्थ सिद्धि ७-१-६६४. संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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