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भ्रमणविद्या
पालन में तत्पर रहना भावश्रमण है । इन चारों में भावश्रमण ही सच्चे श्रमण माने जाते हैं। क्योंकि जो श्रमण ज्ञान तथा दर्शन आदि गुणों में लीन रहकर निस्य प्रवृत्ति करते हुए अपने गुणों में सदा प्रयत्नशील रहते हैं उन्हीं को पूर्ण श्रामण्य की प्राप्ति होती है । "
बुद्धि की दृष्टि से भी श्रमण के चार भेद इस प्रकार हैं - १. पदानुसारीबुद्धिश्रमण- - अर्थात् बारह अंग एवं चौदह पूर्व रूप श्रुत (शास्त्रों) में से एक पद प्राप्तकर उसके अनुसरण से सम्पूर्ण श्रुत को जानने वाले श्रमण । २. बीजबुद्धि श्रमण-र - सम्पूर्ण श्रुत में से एक बीज - प्रधान अक्षरादि के माध्यम से सम्पूर्ण श्रुत जानने वाले श्रमण । ३. सम्भिन्नबुद्धि श्रमण - जिसके समक्ष किसी के द्वारा कुछ भी पढ़ा जाय या कहा जाय वह सब पूरा का पूरा उसी तरह कह देने वाला श्रमण । ४. कोष्ठबुद्धि श्रमण -- जिसका वर्ण (अक्षर) - पद - वाक्य रूप श्रुतज्ञान बहुत काल बाद भी न नष्ट होता है और न न्यूनाधिक होता है, अपितु सम्पूर्ण ही बना रहता है वह कोष्ठबुद्धि श्रमण है । इस प्रकार ये चारों ही श्रमण धारण और ग्रहण में समर्थ, सम्पूर्ण श्रुतज्ञान परमार्थ को जानने वाले अवधि और मन:पर्ययज्ञानी, ऋद्धियों से सम्पन्न तथा धीर होते हैं ।
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श्रमणाचार विषयक साहित्य
भारत की अनेक प्राचीन भाषाओं --अर्द्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश आदि में निबद्ध श्रमणाचार विषयक विपुल वाङ्मय उपलब्ध है। जैन परम्परा के अनुसार यह श्रमणधारा प्राचीन काल में ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित हुई और ईसा पूर्व छठी शताब्दी में इसे वर्द्धमान महावीर ने चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया। उनके बाद अनेक महान् आचार्यों द्वारा यह धारा निरन्तर प्रवर्तित होती आ रही है । इन आत्मदर्शियों के गहन चिन्तन मनन और स्वानुभव से जो विशाल वाङ्मय उद्भूत हुआ वह आज भी हमें पथप्रदर्शन का कार्य कर रहा है । वस्तुतः तीर्थङ्कर महावीर से जो ज्ञान गंगा प्रस्फुटित हुई, वह श्रुतज्ञान, गणधरों, आचार्यों,
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णामेण जहा समणो ठावणिए तह य दव्वभावेण ।
णिक्खेवो वह तहा चदुव्विहो होइ णायव्वो । मूलाचार १०.११० ।
प्रवचनसार ३.१४ ।
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धारणगहणसभत्या पदाणुसारी य बीयबुद्धी य ।
भिण्णको बुद्धी सुयसागरपारया धीरा ।। मूलाचार ९.६६.
संकाय पत्रिका - १
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