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श्रमण विद्या
220) विणओ वेय्यावच्चं कायकिलेसो य पुज्जणविहाणं । सत्ती जहाजोगं कायव्वं देवि एहि ॥
221) हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे । णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ।
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222) महुमज्जमंसविरइ चाओ पुण उंबराण पंचन्हं । अव मूलगुणा वति फुडु देसविरयमि ॥
223) भवणं जिणस्स ण कयं ण य बिबं णेय पूइया साहू । दुद्धरवयं न धरियं जम्मो परिहारिओ तेहिं ||
224) भावहु अणुव्वयाई पालह सीलं च कुह उववासं । पव्वे पव्वे नियमं देही अणवरयदाणाई ||
225) जह गेहेसु पलित्ते कूवं खणिऊण पारयंते ण । तह संपत्ते मरणे धम्मं कह कीरए जीव ||
226) खणभंगुरे सरीरे मणुयभवे अब्भपडलसारिच्छे । सारं इत्तियमित्तं जं कीरइ सोहणो धम्मो !
227) जिणवंदण गुणविणउ तव संयम तह उवयारु । जं किज्जइ खणभंगुरे देहे इत्तिउ सारु ॥
228) जो संतावइ अणुदिह छव्विह जीव णिकाउ | णिरय णिबंधण कम्मउ बलि किज्जइ सो काउ ॥
229) णिग्घिण णिट्ठर दुट्टुमण जे पाणिबहं करंति । ते आवज्जिय पाव मरु णिच्छय नरय पडंति ॥
220. cf, उवा० 319.
221.
222. cf. भावसं ० 356.
224. cf. भावसं० 488.
cf. मोक्खपा० 90, भावसं० 262.
संकाय पत्रिका - १
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