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तच्च वियारो
43) अथिरं जीवं रिद्धी चंचलजुव्वणं पि घणसरिसं । पचक्खं पिक्खतो तह वि हु वंचिज्जए जीवो ॥ 44 ) घरवासे वामूढो अच्छइ आसासयाइं चितंतं । तो ण कुणइ परत्तहियं जो ण हओ मच्चुसीहेण ॥ 45 ) वाही इट्ठविओगो दारिद्द तह जरा महादुक्खं । एहिं परिग्गहिओ तइ विहु धम्मं ण किं करइ ॥
46 ) लहिऊण माणुसत्तं कहं वि अइदुल्ल पि रे जीव । लग्ग जिणवरधम्मे अतिचिंतामणीकप्पे |
47 ) जीव तुमं णवमासे वसिओ असुहम्मि गब्भमज्झमि । कोडियंगवंगो विसतो णारयं दुक्खं ॥
48) रे जीव संपयं चिय वीसरियं तुब्भ तं महादुक्खं । धोवं पि जेण कुणहसि जिणंदवरदेसियं धम्मं ॥
49 ) जं मारेसि रसंते जीवा रे जीव णिरवराहे व । भुंजसि तं दुक्खं पत्तो अइदारुणे रए ||
50 ) जं हरसि परधणाई जं च वियारेसि परकलत्ताइं । तं जीव पाव णरए अइघोरे सहसि दुक्खाई ॥
51) अथिराण चंचलाण य खणमित्तसुहंकराण पावाणं । दुइ णिबंधणाणं विरमसु एयाण भोयाणं ॥
52) कोहो माणो माया लोहो तहेव पंचमो मोहो । एए णिज्जरिऊणं वच्चसि अजरामरं ठाणं ॥
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इय पाऊण असारे संसारे दुल्लहं पि मणुयत्तं । तह करि जिणवरधम्मं जह सिद्धं पावए अजरा ॥
cf. जी० प्र० गा० 85.
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संकाय पत्रिका - १
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