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________________ तच्चक्यिारो १६३ और अधिक महत्त्व का सिद्ध होगा जो अनुसन्धान के क्षेत्र में किसी परम्परा से आबद्ध नहीं हैं तथा अठारह देश्य भाषाओं के सम्मिश्रण से बनी अर्धमागधी में दिये गये महावीर के उपदेशों की तात्विक गवेषणा में गहरे पैठना चाहते हैं । ii) दूसरी बात यह कि आचार विषयक सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन अब मात्र धार्मिक परिसीमा में न होकर समाजवैज्ञानिक सन्दर्भो में किया जाना चाहिए। जैन परम्परा में उपासक या श्रावक के लिए आचार संहिता का निर्देश करने वाले जो भी ग्रन्थ लिखे गए, उनके आधार पर व्यक्ति और समाज के लिए नियम और उपनियमों की धाराओं का एक विशिष्ट दस्तावेज तैयार किया जा सकता है और उनका उल्लंघन करने वाले के लिए दण्ड संहिता का एक व्यवस्थित संविधान प्रस्तुत हो सकता है । उपासक या श्रावक साधु संस्था का भी उस हद तक नियामक था और अब भी है, जहाँ तक साधु एक सामाजिक इकाई के रूप में है। इसलिए मुनि या साधु के आचार का प्रतिपादन करने वाले सिद्धान्त ग्रन्थों के आधार पर मुनि की आचारसहिता का सुव्यवस्थित संविधान निर्मित करना भी कठिन नहीं होगा। iii) जैन आचार्यों द्वारा संयोजित, संकलित और लिखित आचार विषयक सिद्धान्त ग्रन्थों के अनुशीलन से एक यह भी महत्त्वपूर्ण तथ्य उजागर होता है कि आचार्य एक ओर परम्परागत मूल्यों के संरक्षण के प्रति सावधान है, दूसरी ओर देश, काल और बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार नियमों और उपनियमों की मौलिक व्याख्या भी प्रस्तुत करता है तथा नयी धारायें भी निर्मित करता है। व्यक्ति और समाज के अभ्युदय के लिए साधनों की पवित्रता का जो दर्शन उसे पूर्वाचार्य परम्परा से प्राप्त है, वह उसको नयी व्याख्या देने और नयी धाराओं को निर्मित करने में मार्गदर्शन करता है। इस सन्दर्भ में एक ही परम्परा के आचार विषयक ग्रन्थों में निदिष्ट नियमों और उपनियमों को सतही तौर पर देखने से उनमें अन्तविरोध दिखाई देता है, किन्तु सावधानी से उस अन्तर का अनुशीलन करने पर उसका समाधान प्राप्त हो जाता है और उक्त तथ्य उजागर होता है। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में वर्द्धमान महावीर ने या उसके पूर्व पार्श्व ने अथवा उससे बहुत पहले ऋषभदेव ने जो आचार संहिता दी, वही ईसा की बीसवीं शती के उत्तरार्ध में चल रही है, या चलना चाहिए, ऐसा कहना चिन्तक और अनुसन्धाता दोनों के क्षेत्र में नहीं आता। समाजवैज्ञानिक इसे आचारसंहिता के विकास क्रम के सन्दर्भ में जाँचे-परखेगा। संकाय पत्रिका-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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