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________________ १६२ श्रमण विद्या उनमें एकरूपता का ठीक वैसा ही दर्शन होता है, जैसा उवासयाज्झयण और तच्चवियारो में। सभी ग्रन्थों को एक श्रृंखला में रखकर देखने से यह भी ज्ञात होता है कि वसुनन्दि के सम्पूर्ण प्रयत्न समाज को पारम्परिक धार्मिक और दार्शनिक आदर्शो का सम्यग्ज्ञान कराने और सामाजिक जीवन को सुसंस्कृत बनाने की दिशा में थे। सच्चे अर्थों में वे उपाध्याय परमेष्ठी थे । ज्ञान के अहंकार से मुक्त रहकर शब्दाडम्बर रहित सरल तथा सहज ग्राह्य भाषा और शैली में शास्त्रीय चिन्तन को जन मानस तक पहुँचाना ही उन्हें अभीष्ट था । अपने इस कार्य में वसुनन्दि को अद्भुत् सफलता मिली, यह उनकी रचनाओं से प्रमाणित है । 4. तच्चवियारो की भाषा प्राकृत भाषा की दृष्टि से भी तच्चवियारो महत्त्वपूर्ण है । इसमें प्रायः शौरसेनी प्राकृत व्यवहृत है, किन्तु अर्धमागधी का भी प्रयोग है । पिशेल ने जैन आचार्यों के ग्रन्थों की भाषा में उक्त सम्मिश्रण को दृष्टिगत रखकर उसे जैन शौरसेनी नाम दिया है । तच्चवियारो की भाषा का भी यही रूप है । पारम्परिक गाथाओं का संकलन होने के कारण यह और अधिक स्वाभाविक था । यह होते हुए भी तच्चवियारो में शब्दों और धातुओं के विविध रूप उपलब्ध होते हैं, जो प्राकृत भाषा के अध्ययन की दृष्टि से विशेष महत्व रखते हैं । इसके अतिरिक्त अपभ्रंश के जो आठ दोहे उपलब्ध हैं, उनसे अपभ्रंश के भाषागठन और उसके उत्कृष्ट साहित्यिक स्वरूप का पता चलता है । 5. अन्तर्शास्त्रीय अध्ययन की संभावनाएँ प्राकृत और जैनविद्या के सन्दर्भ में 'तच्चवियारों' का अनुशीलन करने पर अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आते हैं । अनुसन्धाताओं का ध्यान कुछेक बातों की ओर अब विशेष रूप से आकृष्ट होना चाहिए । i) उदाहरणार्थ महावीर के उपदेशों की परम्परा को लें। जैन परम्परा की दोनों प्रमुख धाराओं - दिगम्बर और श्वेताम्बर के प्राचीन सिद्धान्त ग्रन्थों में अनेक गाथाएँ समान रूप से उपलब्ध होती हैं। देश, काल के अनुसार उनमें शब्दान्तर भी हुए हैं और आगे चलकर टीकाकारों ने उनके अर्थान्तर भी किये हैं, पर इसके बाद भी उनमें अनुस्यूत सैद्धान्तिक चिन्तन का सूत्र अब भी सुरक्षित है, वर्द्धमान महावीर के उपदेशों की श्रुत परम्परा से जोड़ता है । अन्वेषण करने पर आगे संस्कृत और देश्य भाषाओं में लिखे गये सिद्धान्त ग्रन्थों में भी यह सूत्र अनुस्यूत दिखाई दे जाता है । उन अनुसन्धाताओं के लिए यह कार्य जो उन्हें सीधे सावधानी से संकाय पत्रिका - १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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