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________________ प्राक्कथन 'पञ्चगतिदीपनं' का प्रकाशन पहली बार जर्नल आव द पालि टेक्स्ट सोसाइटी ( पृ० १५२-१६१) १८८४ ई० में रोमन लिपि में हुआ था, जिसका सम्पादन लियोन फियर ( Leon Fecr ) ने किया था । उक्त रोमन लिपि के संस्करण को ही आधार बनाकर यह देवनागरी लिपि का संस्करण तैयार किया गया है । पञ्चगतिदीपनं ११४ गाथाओं में निबद्ध पालि का एक लघु ग्रन्थ है । जैसा इसके नाम से प्रकट होता है, इसमें नरक, पशु, भूतप्रेतादि, मनुष्य एवं देव-इन पाँच गतियों का वर्णन है । प्राणी को अपने मन, वचन एवं काय द्वारा किये गये अच्छे या बुरे कर्मों से कौन-सी अच्छी या बुरी गति प्राप्त होती है तथा वहाँ उसे अपने पूर्वकृत कर्मों का किस प्रकार फल मिलता है - इसीका विस्तृत विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ में है । यद्यपि पेतवत्थु एवं विमानवत्थु में अच्छे या बुरे कर्मों के अच्छे या बुरे फल का वर्णन है, किन्तु पञ्चगतिदीपन में वही बात सरल एवं स्वाभाविक भाषा में कही गयी है । इसे पढ़ने से बुरे कर्मों से दूर रहकर अच्छे कर्म करने की प्रेरणा प्राप्त होती है । इसके लेखक एवं रचनाकाल के विषय में कोई भी जानकारी प्राप्त नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only -- कोमलचन्द्र जैन संकाय पत्रिका - १ www.jainelibrary.org
SR No.014028
Book TitleShramanvidya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1983
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size14 MB
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