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________________ २८६ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन भाषाएँ हैं । अपभ्रंश जन सामान्य की भाषा का पूर्णतया प्रतिनिधित्व करती है । इसके अतिरिक्त विभक्ति, प्रत्यय, परसर्गों में भी प्राकृत और अपभ्रंश में स्पष्ट अन्तर है । अपभ्रंश में देशी रूपों की बहुलता है । यह उकार बहुला भाषा है । अपभ्रंश को आभीरी, भाषा, देशी एवं अवहट्ट आदि नाम भी समय समय पर दिये गये हैं । ये सब नाम अपभ्रंश के विकास को सूचित करते हैं । पश्चिमी भारत की एक बोली- विशेष आभीरी से अपभ्रंश प्रभावित है। जन भाषा की बोली होने से इसे भाषा कहा गया है । कथ्य भाषा होने से यह देशी कही गयी है तथा परवर्ती अपभ्रंश के लिए अवहट्ट कहा गया है, जो अपभ्रंश और हिन्दी भाषा को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है । वह आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की पूर्ववर्ती अवस्था है । प्राकृत अपभ्रंश का दाय: क्षेत्रीय भाषाएं जब लोकभाषाएं साहित्य में रूढ़ हो जाती हैं तब जन सामान्य में नयी लोकभाषा का व्यवहार होने लगता है । इस प्रकार लोकभाषाएं विकसित होती रहती हैं । प्राकृत अपभ्रंश के साथ भी यही हुआ । प्राकृतों में कृत्रिमता आ जाने से तथा साहित्य तक सीमित होने से अपभ्रंश भाषा उदय में आयी थी । जब अपभ्रंश का साहित्य में सर्वाधिक प्रयोग होने लगा तथा वह नियमबद्ध होने लगी तो आगे चलकर लोक में अन्य क्षेत्रीय भाषाएं पनपने लगीं । आधुनिक आर्य भाषाओं ने प्राकृत संस्कृत के गुणों को अपनाकर अपभ्रंश के प्रभाव से अपने को अधिक स्पष्ट और सरल बनाया है । उनमें प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश इन तीनों की विशेषताएं एकत्र हुई हैं । किन्तु लोकभाषा होने के कारण प्राकृत और अपभ्रंश का दाय उनके विकास में अधिक है । यह संक्रान्ति काल की कुछ रचनाओं के अध्ययन से जाना जा सकता है । संक्रान्ति काल की कुछ रचनाएं इस बात की सबल प्रमाण हैं कि प्राचीन अपभ्रंश आदि में नवीन भाषाओं का कैसे संमिश्रण हो रहा था । अब्दुल रहमान के सन्देशरासक में स्वर संकोच होने लग गया था । संयुक्त व्यंजनों में से प्रायः एक ही सुरक्षित रखा जाता था । जैसे- उच्छ्वास उसास उसास आदि । इसी तरह प्राकृत पेंगलम् एवं पुरातनप्रबन्धसंग्रह की भाषा क्रमशः अपभ्रंश की स्थिति को छोड़ती हुई लोकभाषाओं की ओर बढ़ रही थी । पश्चिमी हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी भाषाओं के बीज इनमें देखे जा सकते हैं । उक्तिव्यक्तिप्रकरणम् की भाषा में स्वरूप का प्रामाणिक परिचय मिलता है। काशी, कौशल प्रदेश की काव्य भाषा विशेषकर अवधी भाषा का प्राचीन रूप आधुनिक भारतीय भाषाओं को जन्म वर्ण- रत्नाकर मैथिली का प्राचीनतम प्राचीनतम रूप तो सुरक्षित हैं ही, में देखा जा सकता है । इस ग्रन्थ की भाषा में देने वाली सामान्य प्रवृतियाँ परिलक्षित होती हैं। उपलब्ध ग्रन्थ है। इसकी भाषा में मैथिली के परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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