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प्राकृत तथा अन्य भारतीय भाषाएँ
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प्राकृत के देश भेद एवं संस्कारित होने से अवान्तर विभेद हुए हैं । अतः प्राकृत शब्द की व्युत्पति करते समय 'प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम्' अथवा 'प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम्' अर्थ को स्वीकार करना चाहिए । जन सामान्य की स्वाभाविक भाषा प्राकृत है ।
विभिन्न प्राकृतें
प्राकृत भाषा के प्रयोग में एकरूपता नहीं है । विभिन्न विभाषाओं के बीज क्रमशः उसमें सम्मिलित होते रहे हैं । प्राकृत भाषा के स्वरूप की दृष्टि से दो भेद किये जा सकते हैं -- (१) कथ्य प्राकृत और ( २ ) साहित्य की प्राकृत । प्राकृत जनभाषा के रूप में प्राचीन समय से बोली जाती रही है, किन्तु उसका कोई उदाहरण हमारे समक्ष नहीं है । जो कुछ भी प्राकृत का स्वरूप हमारे सामने आया है, वह साहित्य के माध्यम
। इस साहित्यिक प्राकृत के भाषा के प्रयोग एवं काल की दृष्टि से तीन भेद किये जा सकते हैं - प्रथम युग, मध्ययुग और अपभ्रंश युग ।
ई० पू० छठी शताब्दी से ईसा की द्वितीय शताब्दी तक के बीच प्राकृत में रचे साहित्य की भाषा प्रथम युगीन प्राकृत कही जा सकती है ।
ईसा की द्वितीय शताब्दी से छठी शताब्दी तक जिस प्राकृत भाषा में साहित्य लिखा गया है, उसे मध्ययुगीन प्राकृत कहते हैं । वास्तव में इस युग की प्राकृत साहि त्यिक प्राकृत थी, किन्तु जनसामान्य की भाषा प्राकृत से भी उसका सम्बन्ध बना हुआ था । प्रयोग की भिन्नता की दृष्टि से इस समय तक प्राकृत के स्वरूप में क्रमशः परिवर्तन हो गया था । तदनुरूप प्राकृत के वैयाकरणों ने प्राकृत के ये पाँच भेद निरूपित किये हैं - अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी एवं पैशाची ।
प्राकृत एवं अपभ्रंश
मध्ययुग में ईसा की दूसरी से छठी शताब्दी तक प्राकृत भाषा का साहित्य में कई रूपों में प्रयोग हुआ । वैयाकरणों ने प्राकृत भाषा में भी नियमों के द्वारा एकरूपता लाने का प्रयत्न किया, किन्तु प्राकृत में एकरूपता नहीं आ सकी । यद्यपि साहित्य में कृत्रिम प्राकृत का प्रयोग प्रारम्भ हो गया था । इससे वह लोक से दूर हटने लग गयी थी । लेकिन जिन लोक प्रचलित भाषाओं में साहित्यिक प्राकृतों का विकास हुआ था, वे लोक भाषाएँ अभी भी प्रवाहित हो रही थीं । उन्होंने एक नयी भाषा को जन्म दिया, जिसे अपभ्रंश कहा गया है । यह प्राकृत भाषा के विकास की तीसरी अवस्था है ।
प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का क्षेत्र प्रायः एक जैसा था तथा एक विशेष प्रकार का साहित्य इनमें लिखा गया है। विकास की दृष्टि से भी इनमें घनिष्ठ सम्बन्ध है । अतः कई विद्वानों ने प्राकृत अपभ्रंश को एक मान लिया है, जबकि ये दोनों स्वतंत्र
परिसंवाद-४
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