________________
वैदिक भाषा में प्राकृत के तत्त्व
कर्तवे ( वै० प्र० ३-४-९ )
दातुं ( अथर्व ६-१२२-३ )
ऐसे ( ० प्र० ३ - ४ -९ )
विहंता ( ऋ १ - १७३-५ ) इच्छंत ( ऋ १-१६१-१४ ) भरमाणः (ऋ १-७२-५ )
रक्खमाण
रक्षमाणः ( ऋ १-७२-५ )
रक्खमाण
इच्छमानो ( अथर्व ३-१५ - ३ ) इच्छमाणो राचमाना (ऋ ३-७-५ ) रोयमाण
इसके अतिरिक्त स्त्रीलिंग बनाने के लिए ई प्रत्यय का प्रयोग भी हुआ है । जैसे - भवंती ( अ० ३-१४-६ ), जीवंती ( अ० ३ -१४ - ६), आचरन्ती (ऋ१-१६४-४० ) (५४) हेत्वर्थं कृदन्त के प्रत्ययों में प्रायः समानता मिलती है । यथा—
वैदिक
इन्द्राग्नी (ॠ १-२१ ) ऐतेनाग्ने ( ऋ १-२१-१८ ) नसत्या (ऋ. १-४७-९ ) अत्राह (ऋ १-४८-४ ) शचीय ( ऋ १-५३ - ३ ) पेनातरअ ( अथर्व ४- ३५ -२ )
संस्कृत
कर्तुम्
दातुम्
ऐतुम्
Jain Education International
वैदिक और प्राकृत दोनों में अनियमित कृदंतों का भी प्रयोग होता है, किन्तु उनके रूपों में भिन्नता है ।
(५५) संधि रूप
वैदिक
सवर्ण दीर्घ संधि
अपवाद
विश्वा अधि ( ऋ २ -८-५ ) पृथिवी इमं ( ॠ २-४१-२० ) मनीषा अग्निः ( ऋ १-७० - १ )
पूषा अविष्टुः ( ऋ १०-२६-९ ) होइ इह
प्राकृत
विहंता
इच्छंत
आयारांग (आयार अंग ) विसमायवो ( विसम आयवो ) दससरो (दहि ईसरो ) साऊअयं ( साउ उअयं ) जेणाहं ( जेण अहं ) बहूदग ( बहु उदग )
अ आणण
आणामि
प्राकृत
कत्तवे
दाउं
एसे
For Private & Personal Use Only
२७९
परिसंवाद-४
www.jainelibrary.org