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व्यवहार में अनेकांत का प्रयोग
युवाचार्य महाश्रमण
अनाग्रह भाग दुराग्रही जादगी के व्यवहार में मलिनता पैदा करता है जबकि मिथ्या बातों और अनुपयोगी तथ्यों का आग्रह नहीं होना चाहिए। आदमी का दृष्टिकोण भी सत्यपरक होना चाहिए।
अनेकांत और स्याद्वाद दार्शनिक सिद्धांत हैं। ये लचीली नीतियां मुझे पसंद नहीं हैं। अपना भविष्य मैं खुद
सोच सकता हूं।'
व्यवहार में भी इनका प्रयोग किया जा सकता है । इन्हें व्यावहारिक बनाने के लिए कुछ बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है। अनाग्रह भाव दुराग्रही आदमी के व्यवहार
मलिनता पैदा करता है, जबकि मिथ्या बातों और अनुपयोगी तथ्यों का आग्रह नहीं होना चाहिए। आदमी का दृष्टिकोण भी सत्यपरक होना चाहिए। मिघ्या आग्रह के संबंध में कुमार श्रमणकेशी ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है
चार वणिक् मित्र अर्थार्जन के लिए निकले। मार्ग में उन्हें एक लोहे की खान मिली। चारों मित्रों ने अपनी शक्ति के अनुसार लोहे की गठरियां बांध लीं। वे थोड़ा आगे बढ़े और चांदी की खान आ गई। तीन मित्रों ने लोहा छोड़कर चांदी की गठरियां बांध लीं। किंतु चौथा मित्र बोला— मैंने एक बार जो ले लिया, वही ठीक है। मुझे चांदी नहीं चाहिए । उन्होंने थोड़ा ही रास्ता पार किया कि सोने की खान आ गई। तीनों ने अपनी गठरियों में चांदी के स्थान पर सोना भर लिया। वे और थोड़ा आगे बढ़े कि हीरों की खान मिली। तीनों मित्रों ने सोने के पत्थर वहीं छोड़ दिए और हीरक तीनों मित्रों ने सोने के पत्थर वहीं छोड़ दिए और हीरक प्रस्तरों से अपनी गठरियां भर लीं।
तीनों मित्रों ने लोहवणिक् को काफी समझाते हुए कहा, 'भैया ! कहां लोहखंड और कहां हीरे ? तुम वणिक् हो । व्यापार करना जानते हो । किस वस्तु से कितना लाभ होता है, यह तुमसे छिपा नहीं है जरा अपने भविष्य को सोचो और दुराग्रह छोड़कर माल बदल लो।'
मार्च - मई, 2002
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लोहवणिक ने अपने मित्रों का यह उपदेश तो सुना, पर उत्तेजित हो बोला- मेरी चिंता करने वाले तुम कौन होते हो ? क्या मैं इतनी बात भी नहीं सोच सकता ? तुम्हारी
अपने मित्र की इतनी कड़ी बात सुनने के बाद भी तीनों मित्रों के मन में उसके प्रति करुणा ही उमड़ी रही। उन्होंने एक मुट्ठी हीरक-प्रस्तर उठाए और पोटली में डालने का प्रयत्न किया। किंतु मित्र की हठधर्मिता ने उनको यह भी न करने दिया उनकी मुट्ठी को हवा में उछालते हुए उसने कहा, 'मेरे काम में हस्तक्षेप करने की कोई जरूरत नहीं है आपको।' वे बेचारे क्या करते! मित्र के इस व्यवहार से उनके दिल पर बड़ा आघात लगा । वे चारों अपने शहर लौट गए।
तीनों मित्रों ने बाजार में अपने हीरक-प्रस्तर बेचे और लाखों रुपये कमा लिए । उनका जीवन स्तर अब काफी ऊंचा उठ गया। रहने के लिए बंगला, घूमने के लिए कार, अन्य सुविधा सामग्री और अच्छा खासा व्यवसाय एक दिन तीनों मित्रों ने मिलकर एक प्रीतिभोज का आयोजन किया। मनोरंजन के लिए संगीत और नृत्य के कार्यक्रम भी थे। अनेक विशिष्ट अतिथि उपस्थित थे। ऐसे ही क्षणों में एक चने बेचने वाला बंगले के नीचे से गुजरा। तीनों मित्रों ने उसको देखा और अपने अनुचर को भेजकर उसे ऊपर बुला लिया। उसने सोचा, आज तो भगवान की कृपा हो गई, जो इतने बड़े लोगों को मेरा चना पसंद आया है। वह इसी खुशी में आत्म-विभोर था । अमीर मित्र बोले, 'क्यों रे ! पहचानता है हमें ?'
'बाबूजी! आपको मैं कैसे पहचानूंगा? कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली १'
मित्रों ने पिछला सारा घटनाचक्र उसके सामने उधेड़ते हुए कहा, 'कितना समझाया था तुझे उस समय, पर तू नहीं माना। यदि हमारी बात मान लेता तो आज यों चने
स्वर्ण जयंती वर्ष
जैन भारती
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अनेकांत विशेष • 93
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