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अर्थात् एक ही वस्तु सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य- उसके अनुसार वस्तु अनेक, अनित्य, असत् एवं विशेष है। अनित्य स्वभाव वाली है। ऐसी एक ही वस्तु के वस्तुत्व के इसके विपरीत प्रत्यय एक, नित्य, सत् एवं सामान्य है। निष्पादक परस्पर विरोधी शक्तियुक्त धर्मों को प्रकाशित अरस्तू को प्लेटो का यह सिद्धांत मान्य नहीं था। अतः करने वाला अनेकांत है।
उसने दर्शन जगत में कुछ ऐसे निष्कर्ष प्रतिपादित किए तात्पर्य यह है कि अनेकांत केवल अनंत धर्मों का पुंज
जिनसे प्लेटो के ऐकांतिक चिंतन के खंडन के साथ-साथ मात्र वस्त को नहीं मानता है. अपित एक ही वस्त में एक ही उसके स्वयं के अनैकांतिक दृष्टिकोण को समझा जा सकता काल में अनंत विरोधी धर्म एक साथ रहते हैं—ऐसा मानता है है। द्रव्य में शाश्वत और अशाश्वत, एक और अनेक, वस्तुओं का तत्त्व वस्तुओं में प्लेटो ने वस्तुओं से सामान्य और विशेष, वाच्य और अवाच्य आदि विरोधी पृथक प्रत्यय के अस्तित्व को स्वीकार किया था। वह मानता युगलों को अनेकांत में स्वीकृति मिलती है। आचार्य था कि वस्तुओं का स्थान सांसारिक जगत है और प्रत्ययों अकलंक ने अनेकांत को व्याख्यायित करते हुए अष्टसहस्री का पारमार्थिक जगत। इसके विपरीत अरस्तू का मानना था में लिखा है- 'सदसन्नित्यानित्यादि सर्वथैकान्त कि चूंकि प्रत्यय वस्तुओं के तत्त्व (Essence) हैं, अतः कोई प्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः' अर्थात् वस्तु सत् ही नहीं असत् वस्तु भला अपने तत्त्व या सार से रहित नहीं हो सकती है? भी है, नित्य ही नहीं अनित्य भी है। इसीलिए अनेकांत को अतः यह कहना उचित नहीं है कि वस्तुएं सांसारिक जगत में समन्वय, सहिष्णुता, सह-अस्तित्व, सामंजस्य का हैं और प्रत्यय पारमार्थिक जगत में। अरस्तू के अनुसार प्रतिष्ठापक माना जाता है।
किसी भी वस्तु का प्रत्यय उसी में ही निहित है, उससे पृथक इस प्रकार अनेकांत के अनुसार वस्तु विरोधी युगलों
नहीं।' रेटोरिक ग्रंथ में अरस्तू यह स्पष्ट करता है कि का पुंज है। सूत्रकृतांग का विभज्यवाद, भगवती सूत्र की
अनुभव-आधारित वस्तु और बुद्धि पर आधारित उसके तत्त्व गौतम-महावीर प्रश्नोत्तरी से यह स्पष्ट होता है कि
को अलग-अलग करके देखा नहीं जा सकता।' अनेकांतवाद का बीज आगमों में निहित था। आगमों में कहीं सामान्य और विशेष अनुस्यूत हैं-प्लेटो ने प्रत्यय अनेकांत का उल्लेख नहीं मिलता है। सर्वप्रथम अनेकांत को सामान्य और वस्तु को विशेष कहकर सामान्य और शब्द का उल्लेख आचार्य सिद्धसेन के ग्रंथ सन्मति तर्क विशेष को पृथक-पृथक माना था। उसके अनुसार सामान्य प्रकरण में मिलता है
और विशेष का अलग-अलग अस्तित्व है। प्लेटो के इस
विचार पर टिप्पणी करते हुए अरस्तू ने माना है कि सामान्य जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वहाण निव्वडइ।
के बिना विशेष का कोई महत्त्व नहीं है और विशेष के बिना तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंत वायस्स।।।
सामान्य का कोई अस्तित्व नहीं है। उसके अनुसार न केवल अर्थात जिसके बिना जगत का व्यवहार भी नहीं विशेष द्रव्य है और न केवल सामान्य द्रव्य है। सामान्य चलता, सत्य प्राप्ति की बात तो दूर है ऐसे जगत के एकमात्र और विशेष अन्योन्याश्रित हैं। एक के अभाव में दूसरे की गुरु अनेकांत को नमस्कार है।
कल्पना संभव नहीं। वह यह प्रश्न करता है कि क्या जिस प्रकार आगमों में अनेकांत शब्द का उल्लेख हुए मनुष्यत्व किसी मनुष्य से पृथक् है, गोत्व किसी गाय से बिना अनेकांत का विचार निहित है, उसी प्रकार अरस्तू के पृथक है, मेजत्व किसी मेज से पृथक है? अर्थात् नहीं। दर्शन में अनेकांत शब्द का प्रयोग हुए बिना अनेकांतवाद का मनुष्यत्व मनुष्य में ही होगा और मनुष्य बिना मनुष्यत्व चिंतन निहित है। कुछ लोगों के अनुसार अरस्तु के दर्शन के मनुष्य नहीं कहलाएगा। इस प्रकार एक ही वस्तु एक का अभ्युदय प्लेटो के दर्शन की प्रतिक्रिया-स्वरूप हुआ था। समय सामान्य भी है और विशेष भी। राम एक मनुष्य है। प्लेटो ने जो सामान्य-विशेष का, एक-अनेक का, नित्य एवं वह सामान्य भी है और विशेष भी। अरस्तू का यह चिंतन अनित्य का, द्रव्य एवं आकार का भेद स्वीकार कर दोनों को अनेकांतवाद को ही पुष्ट करता है। पृथक-पृथक माना था, वहीं अरस्तू ने भेदाभेद को स्वीकार द्रव्य और आकार अपृथक हैं-अरस्तू के अनुसार किया था। इस भेदाभेद को स्वीकार करने के कारण ही द्रव्य वह है जिसका परिवर्तन होता है और आकार वह है अरस्तू को प्लेटो के दर्शन की समीक्षा करनी पड़ी थी। जिस रूप में परिवर्तन होता है। कहा भी गया है—What प्लेटो के दर्शन का मुख्य सिद्धांत है उसका प्रत्ययवाद। become is matter what it becomes is form. जहां
स्वर्ण जयंती वर्ष 88. अनेकांत विशेष
जैन भारती
मार्च-मई, 2002
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