SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के निर्माण को चय कहते हैं। यह प्रक्रिया सुनने में जितनी सहज लगती है, हकीकत में उतनी आसान नहीं है। अनैकांतिक व्यवहार के रूप में शरीर के अनेक अंग इसमें अपना सक्रिय योगदान देते हैं। दांत भोजन को काटते चबाते हैं। जीभ चबाने में मदद करती है। लार ग्रंथियां लार बनाती हैं जो भोजन की रासायनिक क्रिया व पाचन में मदद करती है। भोजन जब ग्रासनली के सहयोग से नीचे आमाशय में जाता है, वहां जठर रस भोजन को आगे पचाता है। फिर जब कुछ पचा हुआ भोजन आगे छोटी आंत में जाता है तो उसमें यकृत (लीवर) से पित्त और क्लोम ग्रंथि से अग्नाशय रस मिलता है तब जाकर भोजन का पाचन पूर्ण होता है। यहां तक आते-आते भोजन शरीर के उपयोग लायक पदार्थों में टूटकर रक्त में अवशोषित कर लिया जाता है। इसी प्रकार श्वसन क्रिया के क्रम में नाक की सहायता से श्वास श्वासनली में होता हुआ फेफड़ों में पहुंचता है, जहां गैसों (आक्सीजन, कॉर्बनडाई आक्साईड) का विनिमय होता है। आक्सीजन रक्त में जाती है और कार्बनडाईआक्साईड बाहर निकलती है। रक्त के साथ मिलकर उपयोगी खाद्य- अणु तथा आक्सीजन शरीर की प्रत्येक कोशिका के अंदर पहुंचते हैं, जहां उनका आक्सीकरण होता है। इस आक्सीकरण की प्रक्रिया में कोशिका के वही उपांग सक्रिय भूमिका निभाते हैं जिनका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। आक्सीकरण के पश्चात् ऊर्जा मुक्त होती है जो ए.टी.पी. के रूप में संग्रह की जाती है तथा कार्बनडाईआक्साईड, पानी एवं अन्य त्याज्य पदार्थ पुनः रक्त परिपथ में आ जाते हैं जो गुर्दों के द्वारा छानकर पेशाब के रूप में बाहर कर दिए जाते हैं। कोशिकाओं तक लाए गए विभिन्न यौगिकों / अणुओं की पुनर्संयोजन की प्रक्रिया तथा ऊर्जा की सहायता से एक ओर आवश्यक नवीन रसायनों का उत्पादन होता है, दूसरी ओर नवीन कोशिकाओं का निर्माण होता है जिससे शरीर में वृद्धि होती है इस प्रकार चयापचय का चक्र अनवरत चलता रहता है। उपरोक्त पूरे प्रकरणों पर समग्र रूप से दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि शरीर के बहुत सारे अंग, बहुत सारे तंत्र एक साथ मिलकर कार्य करते हैं अलग-अलग रचना तथा कार्य होते हुए भी वे कभी एक दूसरे का विरोध नहीं करते, बल्कि सहयोग करते हैं। पूरी प्रक्रिया में यदि कोई कड़ी कमजोर साबित होती है तो उसके कार्यों को कोई दूसरा अंग निर्वहन 84 • अनेकांत विशेष Jain Education International करने के लिए वैकल्पिक व्यवस्था तत्काल कर लेता है। उदाहरण के लिए जब किन्हीं कारणों से शरीर के अंदर प्रोटीन की कमी हो जाती है तो पाचन संस्थान और शरीर की कतिपय अन्य कोशिकाएं पहले कार्बोहाईड्रेट को जोड़कर कार्बन, आक्सीजन और हाईड्रोजन मुक्त करती हैं। तत्पश्चात् नाईट्रोजन अणुओं को मिलाकर वे प्रोटीन का निर्माण कर लेती हैं तथा प्रोटीन की न्यूनतम आवश्यकता पूरी हो जाती है। इसी प्रकार जब कार्बोहाइड्रेट की कमी होती है तो प्रोटीन को कार्बोहाईड्रेट में परिवर्तित करने का क्रम शुरू हो जाता है। कार्बोहाइड्रेट और वसा दोनों यौगिक शरीर के लिए ऊर्जा के मुख्य स्रोत होते हैं, परंतु शरीर बसा का उपयोग तभी करता है जब कार्बोहाइड्रेट की कमी होती है। ऐसी स्थिति में परस्पर सहयोग की भावना के अंतर्गत बसा को अन्य कार्यों से मुक्त करके मात्र ऊर्जा उत्पादन के लिए उपलब्ध कराया जाता है। ये सारी व्यवस्थाएं शरीर के अंदर क्रियात्मक अनेकांत की भावना की परिचायक हैं। वृद्धि — मात्र एक कोशिका से प्रारंभ होकर एक वयस्क प्राणी बन जाना वृद्धि कहलाता है। यह जीवन का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है। वास्तव में आकार में बढ़ने की प्रक्रिया ही वृद्धि है। जीवित प्राणी होने के कारण मानव शरीर की वृद्धि सुनियोजित ढंग से होती है। हर एक अंग की वृद्धि आनुपातिक रूप में ही होती है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण और नियंत्रक की भूमिका निभाने वाले अंग मस्तिष्क के वृद्धि विकास का क्रम भी सदैव सीमा के अंदर होता है। - ऐसा नहीं है कि अपेक्षाकृत अधिक शक्तिशाली तथा नियामक शक्तियों से युक्त होने के कारण वह आकार में बड़ा हो जाए तथा हाथ, पैर, अंगुलियां और आंख, कान, नाक आदि छोटे रह जाएं। ऐसी ही व्यवस्था सभी अंगों और तंत्रों के साथ लागू होती है। कोई अंग किसी अन्य अंग के अधिकारों का अतिक्रमण कभी नहीं करता, चाहे वह कितना ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो। इसी का परिणाम है कि शरीर संतुलित रूप से कार्य करने में सक्षम होता है। हां, कभीकभी ऐसी परिस्थितियां भी सामने आती हैं कि किसी अंगविशेष को अधिक कार्य करने की आवश्यकता होती है। उस दशा में उसको अधिक सशक्त बनाया जाना अपेक्षित होता है। तब इसकी इकाइयों में बढ़ोतरी के साथ उसके आकार में भी बढोतरी आवश्यक हो जाती है। ऐसे में अन्य सभी अंगों के सापेक्षिक सहयोग एवं सहमति से उसमें अधिक वृद्धि का क्रम शुरू हो जाता है। स्वस्थ जीवन चलाने एवं संतुलित शारीरिक कार्यों के लिए इस प्रकार के नियोजित एवं परस्पर स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती For Private & Personal Use Only मार्च - मई, 2002 www.jainelibrary.org
SR No.014015
Book TitleJain Bharti 3 4 5 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhu Patwa, Bacchraj Duggad
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year2002
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy