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अनेकांत : सत्य के खोज की व्यावहारिक पद्धति
प्रो. सागरमल जैन
अनेकांतवाद का मूल प्रयोजन मत्य को उसके विभिन्न आयामों में देखने, समझने और समझाने का प्रयत्न है। यही कारण है कि मानवीय प्रज्ञा के विकास के प्रथम चरण से ही ऐसे प्रयास परिलक्षित होने लगते हैं। भारतीय मनीषा के प्रारंभिक काल में हमें इस दिशा में दो प्रकार के प्रयत्न दृष्टिमत होते हैं—(क) बहुआयामी सत्ता के किमी पक्ष-विशेष की स्वीकृति के आधार पर अपनी दार्शनिक मान्यता का प्रस्तुतीकरण तथा (ख) उन एकपक्षीय (रेकॉटिक) अवधारणाओं के समन्वय का प्रयास। समन्वयसूत्र का सृजन ही अनेकांतवाद की व्यावहारिक उपादेयता को स्पष्ट करता है। वस्तुतः अनेकांतवाद का कार्य विविध है--प्रथम, यह विभिन्न ऐकांतिक अवधारणाओं के गुण-दोषों की तार्किक समीक्षा करता है। दूसरे, वह उस समीक्षा में यह देखता है कि इस अवधारणा में जो सत्यांश है वह किस अपेक्षा से है। तीसरे, वह उन सापेक्षिक सत्यांशों के आधार पर, उन एकांतवादों को समन्वित करता है।
अनेकांतवाद एक दार्शनिक सिद्धांत होने की अपेक्षा दार्शनिक मंतव्यों, मान्यताओं और स्थापनाओं को उनके सम्यक् परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करने की पद्धति (Method) विशेष है। इस प्रकार अनेकांतवाद का मूल प्रयोजन सत्य को उसके विभिन्न आयामों में देखने, समझने और समझाने का प्रयास करना है। अतः वह सत्य की खोज की एक व्यावहारिक पद्धति है, जो सत्ता (Reality) को उसके विविध आयामों में देखने का प्रयत्न करती है। दार्शनिक विधियां दो प्रकार की होती हैं— 1. तार्किक या बौद्धिक और 2. आनुभविक । तार्किक विधि सैद्धांतिक होती है, वह दार्शनिक स्थापनाओं में तार्किक संगति को देखती है। इसके विपरीत आनुभविक विधि सत्य की खोज तर्क के स्थान पर मानवीय अनुभूतियों के सहारे करती है। उसके लिए तार्किक संगति की अपेक्षा आनुभविक संगति ही अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। अनेकांतवाद की विकास-यात्रा इसी आनुभविक पद्धति के सहारे चलती है । उसका लक्ष्य 'सत्य' क्या है, यह बताने की अपेक्षा सत्य कैसा अनुभूत होता है—यह बताना है। अनुभूतियां वैयक्तिक होती हैं और इसीलिए अनुभूतियों के आधार पर निर्मित दर्शन भी विविध होते हैं। अनेकांत का कार्य उन सभी दर्शनों की सापेक्षिक सत्यता को उजागर करके उनमें रहे हुए विरोधों को समाप्त करना है। इस प्रकार अनेकांत एक सिद्धांत होने की अपेक्षा एक
64 • अनेकांत विशेष
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व्यावहारिक पद्धति ही अधिक है। यही कारण है कि अनेकांतवाद की एक दार्शनिक सिद्धांत के रूप में स्थापना करने वाले आचार्य सिद्धसेन दिवाकर (ई. चतुर्थ शती) को भी अनेकांतवाद की इस व्यावहारिक महत्ता के आगे नतमस्तक होकर कहना पड़ा
जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ । तस्स भुवणेक्क गुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ।। सन्मति तर्क-प्रकरण- 3170
सर्वथा संभव नहीं है, उस संसार के एकमात्र गुरु अर्थात् जिसके बिना लोक व्यवहार का निर्वहन भी अनेकांतवाद को नमस्कार है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेकांतवाद एक व्यावहारिक दर्शन है। इसकी महत्ता उसकी व्यावहारिक उपयोगिता पर निर्भर है। उसका जन्म दार्शनिक विवादों के सृजन के लिए नहीं, अपितु उनके निराकरण के लिए हुआ है । दार्शनिक विवादों के बीच समन्वय के सूत्र खोजना ही अनेकांतवाद की व्यावहारिक उपादेयता का प्रमाण है। अनेकांतवाद का यह कार्य त्रिविध है—
1. प्रत्येक दार्शनिक अवधारणा के गुण-दोषों की समीक्षा करना और इस समीक्षा में यह देखने का प्रयत्न करना कि उसकी हमारे व्यावहारिक जीवन में क्या उपयोगिता है। जैसे बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद और
स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
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मार्च - मई, 2002
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