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इस प्रकार द्रव्य और गुण-दो भिन्न-भिन्न सत्ता न स्वरूप प्रदान कर रहा है जिसके होने पर पदार्थ को घट ही होकर संज्ञादि की अपेक्षा परस्पर भिन्न होने पर भी एक कहा जाता है। इसलिए इस विशेष गुण के ज्ञानपूर्वक द्रव्य ही सत्ता हैं। सत्तापेक्षया द्रव्य और गुण में अभेद होने के के प्रति 'घट' इस विशिष्ट बुद्धि की उत्पत्ति होती है। कुछ कारण न केवल एक द्रव्य का आत्मा या स्वभाग उसके गुणों के ज्ञानपूर्वक घट को ज्ञात कहने का अर्थ यह नहीं है समस्त गुण हैं, बल्कि एक गुण का स्वभाग भी उसका कि वह संपूर्णतः ज्ञात हो गया है। इसके विपरीत घट को आश्रयभूत संपूर्ण द्रव्य है। इस प्रकार सत्ता मात्र गुणरूप, ज्ञात अंशों से ही ज्ञात कहा जाता है तथा वह अपने अज्ञात मात्र द्रव्यरूप या परस्पर निरपेक्ष गुण, गुणीरूप न होकर धर्मों की अपेक्षा अज्ञात भी रहता है।” अवगृहीत पदार्थ के गुणगुण्यात्मक स्वरूप में अवस्थित हैं। जिस प्रकार संज्ञादि इस ज्ञाताज्ञात स्वरूप में ज्ञात होने के कारण ही उसके की अपेक्षा परस्पर भिन्न-भिन्न अनेक गुण ही परस्पर विशिष्ट स्वरूप के प्रति ईहापूर्वक आवाय, धारणारूप ज्ञान तादात्म्य संबंधपूर्वक एक द्रव्यरूपता को प्राप्त होते हैं, की उत्पत्ति होती है जो न केवल ज्ञेय पदार्थ के अनेक उसी प्रकार संज्ञा आदि की अपेक्षा भिन्न-भिन्न अनेक क्षणव्यापी एक अस्तित्व को बल्कि ज्ञान के एकानेकात्मक अवयव परस्पर संयोग संबंधपूर्वक एक-दूसरे से संबंधित स्वरूप को भी सिद्ध करती है। और प्रभावित होते हुए एक अवयवीरूपता को प्राप्त
ज्ञान के प्रारंभिक चरणों में हम एकधर्मी के विभिन्न करते हैं।
धर्मों को परस्पर निरपेक्ष रूप से ही जानते हैं। चक्षु, त्वचा, सत्ता के इस एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक स्वरूप के जिह्वा आदि इंद्रियों से हमें रूप, स्पर्श, रस आदि गुण कारण ज्ञान सदैव धर्मधात्मक स्वरूप लिए हुए होता है परस्पर निरपेक्ष रूप से ही ज्ञात होते हैं। इस स्तर पर हम तथा उसका विषय सदैव गुणगुण्यात्मक अवयव- यह नहीं जान पाते कि.इन गुणों में किसी प्रकार का संबंध अवयव्यात्मक, पर्यायपर्याय्यात्मक सत्ता होती है। है अथवा नहीं। इसी प्रकार शब्द प्रमाण द्वारा एक-एक प्रत्यक्ष अनुमानादि सभी प्रमाणों द्वारा एकानेकात्मक,
वाक्य में वस्तु की एक-एक विशेषता को क्रमिक रूप से भेदाभेदात्मक वस्तु ही ज्ञात होती है। बौद्ध कहते हैं कि जानते हुए ही जाना जा सकता है जो हममें अनेक बार इन धर्मधर्मीभाव में युक्त सविकल्पक ज्ञान परमार्थतः सत्य न तत्त्वमीमांसीय भ्रमों को उत्पन्न कर देता है कि एक वस्तु होकर अनादि वासनाजनित मानसिक कल्पना मात्र है। की अनेक विशेषताए परस्पर निरपेक्ष है तथा वस्तु या तो प्रत्यक्ष मात्र धर्म को ही जानता है। उदाहरण के लिए उन अनेक विशेषताओं के स्वरूप पर आरोपित एक नाम चाक्षष प्रत्यक्ष द्वारा मात्र एक गण-रूप का ही प्रत्यक्ष होता मात्र या उनसे भिन्न उनका आश्रय मात्र है। यह भ्रम पदार्थ है। उस एक गुण के ज्ञानपूर्वक होने वाला रूप, रसादि के स्वरूप का नाष्क्रय आर तटस्थ रूप से ग्रहण करने पर अनेक गुणात्मक द्रव्य घट को ज्ञात कहना यथार्थ ज्ञान न ही होता है। यदि हम रुचिपूर्वक किसी पदार्थ को जानने के होकर अनादि वासनाजनित मानसिक कल्पना मात्र है। लिए प्रयत्नरत हो तो वस्तु की ज्ञात हो रही विशेषताएं यथार्थ ज्ञान का विषय एक-अनेक स्वभावी सत्ता न होकर अनेक प्रश्नों को जन्म देती हैं। उदाहरण के लिए विभिन्न मात्र एक स्वभावी सरल धर्म है। अकलंकदेव इस मत को रंगों के प्रत्यक्षपूर्वक हममें यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि प्रत्यक्ष सदैव सविकल्पक हल्के रंगों के प्रत्यक्ष से ठंडक का तथा गहरे रंगों के (विशेषण-विशेष्य भाव से युक्त) ही होता है तथा उसका प्रत्यक्ष से गर्मी का अनुभव क्यों होता है? हम यह देखते हैं विषय द्रव्यपर्यायात्मक. सामान्य-विशेषात्मक वस्त होती कि वस्तु के स्पर्शगुण में परिवर्तन उसके रंग, गंध और रस है। प्रत्यक्ष का विषय रूप, रस आदि कोई एक गण न को परिवर्तित कर देता है। जैसे एक आम को गर्म स्थान होकर गुणात्मक द्रव्य होता है। हम चाक्षुष प्रत्यक्ष द्वारा पर रखने पर वह बहुत जल्दी पक और सड़ जाता है, मात्र एक सरल गुण-रूप को न जानकर अस्तित्व. द्रव्यत्व. उसके रंग, गंधादि में बहुत तेजी से परिवर्तन होता है। प्रमेयत्व, पृथुवुध्नाकारमय रूप को जानते हैं। इन गुणों में जबकि उसे ठंडे स्थान पर रखने पर ऐसा नहीं होता। यह स्वभाव भेद होने पर भी सत्तापेक्षया अभेद होने के कारण अनुभव हमारे समक्ष यह प्रश्न उत्पन्न करता है कि पुद्गल ये एक द्रव्य हैं, इसलिए इनके ज्ञानपूर्वक एक द्रव्य को ज्ञात क स्पश-गुण आर अन्य गुणा म
के स्पर्श-गुण और अन्य गुणों में क्या संबंध है। इन तथा कहा जाता है। इन गुणों में पृथुवुध्नाकार वह असाधारण एस अनक प्रश्ना के उत्तर प्राप्त कर
पशवनाकार वह असाधारण ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने हेतु किए गए धर्म है जो इस सत्ता को अघट से पृथक एक ऐसा विशिष्ट प्रयत्नपूर्वक ज्ञात हो रही वस्तु की नई विशेषताएं न केवल R
R RRRRRRRRRRRRRRRRE स्वर्ण जयंती वर्ष मार्च-मई, 2002
जैन भारती
अनेकांत विशेष.55
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