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नियति
निषेध नहीं करते।' भगवान ने कहा—'तू संयम क्यों भगवान गोशाला के साथ 'सवर्ण खलय' ग्राम नहीं रखता? उपयुक्त स्थान को छोड़कर बाहर क्यों की ओर जा रहे थे। रास्ते में कई खाले 'खीर' बनाने बैठा रहता है?' का उपक्रम कर रहे थे। उनके पास गायों का दूध तथा
चक्रवर्ती महावीर नए तंदुल थे। गोशाला ने यह देखा। उसने भगवान से
सुरभिपुर के पास वाली गंगा नदी को पार कर कहा-'भगवन् ! आज यहीं भोजन करें। भगवान ने कहा—'यह खीर नहीं बनेगी। बर्तन फूट जाएगा और
भगवान 'थूणाग' सन्निवेश की ओर आगे बढ़े। नदी के खीर जमीन पर गिर जाएगी।' गोशाला को भगवान के
तट की चिकनी मिट्टी में भगवान के पैरों की रेखाएं वचन पर विश्वास नहीं हुआ। वह ग्वालों के पास गया
उत्कीर्ण हुईं। पूष नामक सामुद्रिक शास्त्री ने रेखाओं और उनसे कहा-'तीन काल के ज्ञाता ने कहा है कि
को देखकर सोचा-'यह चक्रवर्ती होगा। एकाकी है। खीर का यह पात्र फूट जाएगा। अतः तुम इसकी सुरक्षा
मैं इसकी इस कुमार अवस्था में उपासना करूं| आगे के लिए प्रयत्न करो।' वालों ने पात्र को बांस के पत्रों
चलकर यह सेवा मेरे लिए लाभप्रद होगी।' वह भगवान से बांधकर अग्नि पर चढ़ा दिया और उसमें बहुत-सारे
के पास गया। भगवान प्रतिमा में स्थित थे। भगवान को चावल डाले। कुछ समय बाद अति चावलों से वह पात्र
देखकर उसने सोचा-'मेरा ज्ञान निरर्थक है। क्या इन फूट गया। खीर नीचे गिर गई। वालों ने कुछ-कुछ
रेखाओं से युक्त व्यक्ति अकिंचन श्रमण हो सकता है? आस्वाद लिया। गोशाला को कळ नहीं मिला। नियति चलो, ऐसी विद्या से मुझे क्या?' इतने में ही देवराज पर उसका विश्वास दृढ़ हो गया।
इन्द्र वहां आए। भगवान की स्तवना कर पूष से
कहा-'तुम लक्षण विद्या नहीं जानते। यह महात्मा गोशाला
अपरिमित लक्षण वाला है। इसके आभ्यंतर लक्षण ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान महावीर भिन्न हैं। शास्त्रवाणी कभी झूठी नहीं होती। तुम्हारा चंपा नगरी में पधारे। तीसरा वर्षावास यहीं व्यतीत यह अनमान कि यह चक्रवर्ती होगा. सही है। यह करने का निश्चय कर लिया। भगवान सदा तपस्या को पण्यात्मा धर्म-तीर्थ का चक्रवर्ती है। देवेंद्र और नरेंद्रों से प्रधानता देते। इस वर्षावास में दो-दो मास की तपस्या पूजित है।' सामद्रिक शास्त्री पुष को संतोष हुआ। करने का निश्चय किया। तपस्या में ध्यान और ध्यान अपने ज्ञान की अविकलता पर उसे हर्ष हआ और वह में उत्कटुक आसन से भगवान स्थित थे। प्रथम दो मास भगवान के अतिशयों की मन-ही-मन प्रशंसा करता बीते। पारणा हुआ। दूसरे दो मास की तपस्या पूर्ण हुई। हआ आगे बढ़ चला। पारणा चंपा की बाहिरिका में किया। वहां से भगवान 'कालाय' सन्निवेश में पधारे। एक शून्य गृह में ठहरे।
नौका में महावीर गोशाला साथ था। भगवान एकांत में जा ध्यान में लीन
भगवान 'सुरभिपुर' ग्राम में पधारे। वहां गंगा हो गए। गोशाला द्वार पथ पर बैठ गया। उसी नगर का
नगर का
नदा का पार करन के लिए
नदी को पार करने के लिए एक नौका में बैठे। अन्यान्य सिंह नामक श्रेष्ठी पत्र अपनी गोष्ठया दासी के साथ लोग भी उसमें बैठे। 'सिद्धयात्र' नामक नाविक नौका रमण करने वहां आया। सर्वप्रथम उसने शन्य ग्रह को खे रहा था। उस नौका में 'खेमलक' नामक व्यक्ति ध्यान से देखा कि कोई भीतर तो नहीं है। भगवान तथा शकुनशास्त्र का पारंगत विद्वान भी था। नौका चली। गोशाला उसे नहीं दिखे! गोशाला ने उन्हें क्रीड़ा करते खेमलक ने कहा—'शकुन के अनुसार नाव में देख लिया। जब वह रमण कर जाने लगा तब गोशाला बैठे हुए हम सब व्यक्तियों की मृत्यु होगी। किंतु हमारे ने कहा-'छीः-छीः!' सिंह को क्रोध आया। उसने मध्य में बैठे हुए इस महान ऋषि के प्रभाव से हम गोशाला को खूब पीटा। वह भगवान के पास गया और जीवित रह सकेंगे।' नौका कुछ आगे बढ़ी। इधर देव कहा-'भगवन! लोग मुझे पीटते हैं, आप उसका नागकुमार के राजा सुन्द्रष्टा ने भगवान को नौका में बैठे
स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
मार्च-मई, 2002
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अनेकांत विशेष.149
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