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नित्यता और पर्याय की अनित्यता जैन दर्शन के समान ये समस्त संदर्भ अनेकांत के संपोषक हैं—यह तो सांख्य दर्शन को भी मान्य है।
स्वतःसिद्ध है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वेदांत दर्शन में वेदांत में अनेकांतवाद
भी अनेकांतवादी दृष्टि अनुस्यूत है। भारतीय दर्शनों में वेदांत दर्शन वस्तुतः एक दर्शन योग दर्शन में अनेकांतवाद नहीं, अपितु दर्शन-समूह वाचक है। आचार्य शंकर योग दर्शन भी जैन दर्शन के तुल्य ही सत्ता को सृष्टिकर्ता ईश्वर के प्रसंग में स्वयं ही प्रवृत्ति-अप्रवृत्ति रूप सामान्य विशेषात्मक मानता है। योगसूत्र में कहा गया हैदो परस्पर विरोधी गुणों को स्वीकारते हैं। वे लिखते हैं- 'सामान्य विशेषात्मनोऽर्थस्य' (समाधिपाद का सूत्र
ईश्वरस्य तु सर्वज्ञत्वात्, सर्व शक्तिमत्वात्। )। मात्र इतना ही नहीं, योग दर्शन में द्रव्य की नित्यता को महामायत्वाच्च प्रवृत्यप्रवृती न विरुध्यते।। उसी रूप में स्वीकृत किया गया है, जिस रूप में अनेकांत
(ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य 2/2/4) दर्शन में। परिणाम का लक्षण भी योगभाष्य (3/13) में पुनः माया को न ब्रह्म से पृथक कहा जा सकता है अनेकांतरूप से ही किया है। यथा-'अवस्थितस्य द्रव्यस्य और न अपथक. क्योंकि पथक मानने पर अदैत खंडित होता पूर्वधमानवृत्ती धमन्तिरात्पत्तिः परिणामः।' अथात स्थिरदव्य है और अपृथक मानने पर ब्रह्म माया के कारण विकारी सिद्ध क पूवधम का निवृत्ति हान पर नूतन धर्म की उत्पत्ति होना होता है। माया को न असत् कह सकते हैं और न सत् । यदि प माया असत् है तो सृष्टि कैसी होगी और अगर माया संत, जैन दर्शन में द्रव्य और पर्याय या गुण, दूसरे शब्दों में तो फिर मुक्ति कैसे होगी? वस्तुतः माया न असत् है और धर्म और धर्मों में एकांत अभेद को स्वीकृत नहीं करके उनमें न सत्, न ब्रह्म से अभिन्न है और न भिन्न। यहां भेदाभेद स्वीकृत करता है और यही उसके अनेकांतवाद का अनेकांतवाद जिस बात को विधिमुख से कह रहा है- आधार है। यही दृष्टिकोण हमें योगसूत्र भाष्य में भी प्राप्त आचार्य शंकर उसे ही निषेधमुख से कह रहे हैं।
होता हैआचार्य शंकर के अतिरिक्त वेदांत दर्शन के प्रसिद्ध न धर्मीत्र्यध्वा धर्मास्तु व्यधूवान ते लक्षिता'ब्रह्मसूत्र' ग्रंथ के 'तत्तुसमन्वयात्' (1/1/4) सूत्र का अलक्षिताश्च तान्तामवस्थां प्राप्नुवन्तोऽन्यत्वेन भाष्य करते हुए प्रख्यात विद्वान भास्कराचार्य ने लिखा प्रतिनिर्दिश्यन्ते अवस्थान्तरतोः न द्रव्यान्तरतः। यथैक रेखा
शत्स्थाने शतंदशस्थाने दशैकं चैकस्थाने। यथाचैकत्वेपि कार्यरूपेण नानात्वमभेदः कारणात्मना।
स्त्री माताचोच्येत दुहिता च स्वसा चेति (योगसूत्र हेमात्मना यथाऽभेद कुण्डलाद्यात्मनाभिदा।। (पृ. 16-17) विभूतिपाद, भाष्य 13)। उपर्युक्त तथ्य को इस तरह भी
अर्थात् ब्रह्म कार्यरूप से भिन्न-भिन्न इस कारण प्रकट किया गया है-'यथा सुवर्ण भाजनस्य भित्वाऽन्यथा अनेकरूप हैं और कारणरूप से एक एवं अभिन्नरूप है। जैसे क्रियमाणस्य भावान्यथात्वं भवति न सुवर्णान्यथात्वम्।' कि कुंडल, कंटक आदि सोने की अपेक्षा से एक अभिन्नरूप इन दोनों संदर्भो से सुस्पष्ट है कि जिस तरह एक नर है, किंतु कंटक कुंडलादि रूप से अनेक और भिन्नरूप हैं। (पुरुष) अपेक्षा भेद से पिता, पुत्र, श्वसुर आदि कहलाता है, प्रवर विज्ञान भिक्षु ने ब्रह्मसूत्र पर विज्ञानामृत भाष्य उ
उसी प्रकार एक ही द्रव्य अवस्थांतर को प्राप्त होकर भी वही लिखा है, उसमें वे अपने भेदाभेदवाद का न मात्र पोषण करते रहता
र रहता है। जो जैन दर्शन में अनेकांतवाद का आधार है। इस हैं, अपितु अपने मत की पुष्टि में कूर्मपुराण, स्कंदपुराण, नारद प्रकार या
प्रकार योग दर्शन की पृष्ठभूमि में कहीं-न-कहीं अनेकांत पुराण आदि से संदर्भ भी प्रस्तुत करते हैं। यथा
दृष्टिकोण अनुस्यूत है। त एते भगवद्रूपं विश्वं सदासदात्कम्।
न्याय दर्शन में अनेकांत (विज्ञानामृत भाष्य, पृ. 111) न्याय दर्शन में उल्लिखित है कि सत्ता सत्-असत् चैतन्यापेक्षया प्रोक्तं व्यमादि सकल जगत्।। रूप है। जो कि कार्य-कारण की व्याख्या के संदर्भ में असत्यं सत्यरूपं तु कुम्भकुंडाद्यपेक्षया।। प्रकारांतर में स्वीकार है। पूर्वपक्ष के रूप में यह कहा गया है
(वही, पृ. 63) कि उत्पत्ति के पूर्व कार्य न तो असत् कहा जाता है, न सत्
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स्वर्ण जयंती वर्षH जैन भारती
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LE मार्च-मई, 2002
142 • अनेकांत विशेष
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