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सकता तो उसे द्रव्य कैसे कहा जा सकता है, अर्थात् नहीं ही हो सकेगा, क्योंकि दोनों कार्य एक ही स्वभाव से जन्मे हैं
कहा जा सकता ।
और वह स्वभाव नित्य वस्तु में सदा विद्यमान है। उस स्वभाव के सदा विद्यमान रहते हुए भी कार्य एक साथ न होकर आगे-पीछे कैसे हो सकते हैं? शायद कहा जाए कि यद्यपि दोनों कार्य एक स्वभावजन्य हैं, किंतु दोनों के सहकारी कारण भिन्न-भिन्न है. अतः दोनों कार्य क्रम से होते हैं, किंतु ऐसी स्थिति में तो वह कार्य सहकारी कारणजन्य ही कहा जाएगा।
जैन दर्शन में वस्तु का स्वरूप कथंचित्
नित्यानित्यात्मक है। आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है
अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः । क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता ।। (लघीयस्त्रय प्रमाण प्रवेश, 8 )
अर्थात् नित्यपक्ष में और क्षणिक पक्ष में क्रम और अक्रम से अर्थक्रिया नहीं बनती और उस अर्थक्रिया को परमार्थभूत अर्थों का लक्षण माना गया है।
बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति ने 'प्रमाणवार्तिक' में लिखा है कि जो अर्थक्रिया करने में समर्थ है वही वस्तु परमार्थ सत है,
यथा
अर्थक्रियासमर्थं यत् तदत्र परमार्थसत् । अन्यत् संवृति सत् प्रोक्तं ते स्वसामान्यलक्षणे ।।
बौद्ध दर्शन विशेषवादी है। सामान्य के विषय में बौद्धों की एक विशिष्ट कल्पना है वे मनुष्य गोत्व आदि को कोई वास्तविक पदार्थ नहीं मानते। जितने मनुष्य हैं वे सब अमनुष्य (गौ आदि) से व्यावृत्त हैं तथा सब एक सा कार्य करते हैं। अतः उनमें एक मनुष्यत्व सामान्य की कल्पना कर ली गई है। सामान्य अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं है। इसी तरह गोत्व सामान्य से दुग्ध दोहन, भार वहन आदि अर्थक्रिया संभव नहीं है, इसलिए सामान्य को काल्पनिक माना गया है।
आचार्य अकलंकदेव लिखते हैं कि अर्थक्रिया या तो क्रम से होती है या अक्रम से (अर्थात् युगपत्) होती है, किंतु वस्तु को सर्वथा नित्य या सर्वधा क्षणिक मानने पर न तो क्रम से ही अर्थक्रिया होना संभव है और न अक्रम से ही अर्थक्रिया होना संभव है। इसका खुलासा इस प्रकार है— अर्थक्रिया का मतलब है कुछ काम करना। पहले एक कार्य किया, फिर दूसरा कार्य किया—इसे क्रम कहते हैं। इस प्रकार का क्रम नित्य वस्तु में नहीं बनता, क्योंकि नित्य वस्तु जिस स्वभाव से पहले कार्य को करती है, उसी स्वभाव से यदि दूसरे कार्य को करती है तो दोनों कार्य एक काल में ही हो जाएंगे। इसी तरह नित्य वस्तु जिस स्वभाव से पीछे होने वाले दूसरे कार्य को करती है, यदि उसी स्वभाव से पहले होने वाले प्रथम कार्य को भी करती है तो पहले होने वाला कार्य भी पीछे होने वाले कार्य के काल में
132 • अनेकांत विशेष
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संभवतः तर्क दिया जाए कि नित्य वस्तु भी तो उपस्थित रहती है, तभी तो कार्य होता है, किंतु अकिंचित्कर नित्य के उपस्थित रहने से भी क्या लाभ है? जिसके रहते हुए भी कार्य नहीं होता और सहकारी कारण के आ जाने पर कार्य होता है। अतः नित्य वस्तु क्रम से कार्य नहीं कर सकती और युगपद् भी कार्य नहीं कर सकती, क्योंकि ऐसी स्थिति में एक ही क्षण में सब कार्यों की उत्पत्ति का प्रसंग उपस्थित हो जाने से आगे के क्षणों में उसे कुछ करने के लिए शेष नहीं रहेगा और ऐसा होने पर वह अर्थक्रिया से शून्य हो जाएगा और अर्थक्रिया से शून्य होने पर नित्य वस्तु का अभाव ही हो जाएगा, वस्तु का अभाव ही हो जाएगा, क्योंकि जो 'अर्थक्रियाकारी होता है—यही वास्तव में सत् है' ऐसा सिद्धांत है अतः नित्य वस्तु न तो क्रम से कार्य करने में समर्थ है और न अक्रम से कार्य करने में समर्थ है, अतः वह अवस्तु ही है, क्योंकि जो क्रम और अक्रम से अर्थक्रिया नहीं करता, वह वस्तु नहीं है—जैसे आकाश के फूल ।
अब प्रश्न उठता है कि नित्य पदार्थ में कार्य करने का स्वभाव सर्वदा रहता है, अथवा कभी-कभी? यदि सर्वदा रहता है तो सर्वदा ही सब कार्यों की उत्पत्ति हुआ करेगी, क्योंकि नित्य पदार्थ में कार्यों को उत्पन्न करने का स्वभाव सदा विद्यमान रहता है। यदि कभी-कभी रहता है तो इसका यह मतलब हुआ कि नित्य पदार्थ पहले तो कार्य को उत्पन्न करने में असमर्थ रहता है और पीछे वह उसे करने में समर्थ हो जाता है। तब पुनः प्रश्न होता है कि जब वह नित्य पदार्थ कार्य को उत्पन्न करता है तो उस समय अपने असमर्थपने को छोड़ देता है या नहीं? यदि नहीं छोड़ता, तब तो वह उस कार्य को कभी भी उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि जो वस्तु जिस कार्य को उत्पन्न करने में असमर्थ अपने पूर्व स्वभाव को नहीं छोड़ती, वह वस्तु उस कार्य को कभी भी उत्पन्न नहीं कर सकती। जैसे जी से शालि धान्य के अंकुर कभी भी उत्पन्न नहीं होते।
स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
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मार्च - मई, 2002
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