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अनेकांठ : उद्भव एवं विकास
डॉ. अधीककुमार जैन ।
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अनेकांत को सर्वथा अनेकांठल्य मानने पर अनेकांववादी को स्व-मत हानि का प्रसंग प्राप्त होता है क्योकि अनेकठिवाद में सर्वथा नियम का त्याम हा अर्थात किसी भी वस्तु-तत्व का प्रतिपादन करते समय सर्वथा शब्द का प्रयोग वर्जित है।
गत्येक दर्शन या धर्म के प्रवर्तक की एक विशेष अज्ञानवादियों के 67 तथा विनयवादियों के 32 प्रकार
दृष्टि होती है जो उनके दर्शन का आधार होती बतलाए गए हैं। है, जैसे भगवान बुद्ध की अपने धर्म प्रवर्तन में मध्यम ज्ञानी मनुष्य सत्य के प्रति समर्पित होता है। वह ऐसा प्रतिपदा दृष्टि है या शंकराचार्य की अद्वैत दृष्टि है। जैन कोई वचन नहीं बोलता जिसमें सत्य की प्रतिमा खंडित हो। दर्शन के प्रवर्तक महापुरुषों की भी उसके मूल में एक विशेष सत्य हैद्रव्य और पर्याय। भगवान महावीर ने अपने दृष्टि रही है, जिसे हम 'अनेकांतवाद' कहते हैं। जैन दर्शन समय में आत्मा, लोक, कर्म, शरीर आदि के संबंध में होने का समस्त आचार-विचार इसी पर अवलंबित है। इसी से वाले प्रश्नों का समाधान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव दृष्टि जैन दर्शन अनेकांतवादी दर्शन कहलाता है। वस्तु सत् ही है से करके विभिन्न मतवादों में समन्वय स्थापित करने का या असत् ही है, नित्य ही है अथवा अनित्य ही है—इस प्रयास किया जो उनकी अनेकांत दृष्टि का परिचायक है। प्रकार की मान्यता को एकांत कहते हैं और उसका
वस्तु के बारे में अनाग्रह के दृष्टिकोण का विकास ही निराकरण करके वस्तु को अपेक्षा भेद से सत्-असत्, नित्य
अनेकांत व्यवस्था का मूल आधार है। अपने ही पक्ष को अनित्य आदि मानना अनेकांतवाद है।
सत्य मानने और दूसरे की दृष्टि का तिरस्कार करने से __आगम युग में अनेकांत प्राचीन तत्त्व-व्यवस्था में विसंवादों की समाप्ति संभव नहीं है। सूत्रकृतांग में लिखा भगवान महावीर ने क्या नया अर्पण किया-इसे जानने के हैलिए आगमों के अतिरिक्त हमारे पास कोई साधन नहीं है।
सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं। भगवान महावीर के काल में 363 मतवाद थे यह
जे उ तत्थ विउस्संति संसारं ते विउस्सिया।। समवायगत सूत्रकृतांग के विवरण तथा सूत्रकृतांग नियुक्ति
। अर्थात् अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मतों से ज्ञात होता है। यथा
की निंदा करते हुए जो गर्व से उछलते हैं वे संसार (जन्मअसियसयं किरियाणं अक्किरियाणं च होइ चुलसीति। मरण) की परंपरा को बढ़ाते हैं। अन्नाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा।।
उपर्युक्त श्लोक के पाद-टिप्पण में आचार्यश्री तेसि मताणुमतेणं पन्नवणा वण्णिया इहऽज्झयणे।
महाप्रज्ञजी ने लिखा है-अपने सिद्धांत की प्रशंसा और सब्भावणिच्छयत्थं समोसरणमाहु तेणं ति।। दसरे सिद्धांत की गर्दा करना वर्तमान की ही मनोवत्ति नहीं
(सूत्रकृताङ्ग नियुक्ति गाथा, 112-113) है, यह पुरानी मनोवृत्ति है। 'यही सत्य है, दूसरा सिद्धांत सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध के समवसरण अध्ययन सत्य नहीं है' इसी आग्रह ने संघर्ष को जन्म दिया है। में चार प्रमुख वादों का वर्णन प्राप्त होता है-1. क्रियावाद, इदमेवैकं सत्यं, मम सत्यं' इस आग्रह से जो असत्य जन्म 2. अक्रियावाद, 3. अज्ञानवाद, 4. विनयवाद। इनमें लेता है, उससे बचने के लिए अनेकांत को समझना क्रियावादियों के 180, अक्रियावादियों के 84, आवश्यक है। अनेकांत दृष्टि वाला दूसरे सिद्धांत के विरोध
पिया हा
स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
मार्च-मई, 2002
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अनेकांत विशेष. 127
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