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मेरा उससे संघर्ष चला। मैं तन्जोमारू ठहरा । तलवार का सहारा लिए बिना मैंने उस पर काबू पा लिया, औरत जात चाहे कितनी भी साहसी क्यों न हो, बिना हथियार के अपने को नहीं बचा पाती है उसको वश में करके मैंने जी भर उसका आनंद लिया। उसके आदमी को मारे बिना हां... इसके बिना मेरा पहले से उसको मारने का कोई इरादा न था । यह मैं आपसे कह चुका हूं।
वह बराबर रो रही थी उसको छोड़कर मैं भागने लगा कि वह बौखलाई-सी मेरे पास चिपकती हुई बोली, 'तुम दोनों में से एक मर जाओ।' उसकी टूटी आवाज में याचना थी वह अपने पति या मुझे दो में से एक को ही जिंदा देखना चाहती थी ऐसी अपमानित स्थिति में वह एक ही आदमी के साथ रहने को तैयार थी, दूसरे की मौत देखना चाहती थी। वह दो में से एक की पत्नी बनकर रहने की इच्छुक थी। अफसोस मेरे दिमाग से उस वक्त उसके आदमी को मारने का खयाल हवा हो चुका था।
(आवेश-भरी उदासी)
तुम लोगों की नजरों में मैं एक गिरा हुआ आदमी हो सकता हूं। फिर भी मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि पहली बार देखते ही मैंने उसको अपनी पत्नी बनाने का निश्चय किया था। मेरी इच्छा ऐसी प्रबल हुई थी, जैसे मेरी जिंदगी की एकमात्र साथ यही बाकी रही हो। आप इसे वासना नहीं कह सकते। ऐसा होता, तो मैं अपना काम पूरा कर चुका था। आसानी से भाग निकलता, लेकिन बंधे आदमी को मारकर कायर बनूं, यह मेरी आत्मा को कबूल न था । मैंने उसकी रस्सी खोली, जो बाद में आपको मिली थी। मैंने उसको ललकारा। आवेश में तमतमाया वह रस्सी के खुलते ही मुझ पर छा गया। एक शब्द बोले बिना वह लगातार तलवार चलाता रहा। उसने तेईस वार किए। तेईस वार ! हां, याद आते ही कंपकंपी छूटती है। इतनी देर तक मेरे सामने तलवार चलाने वाला आज तक इस जमीन पर कोई जन्मा है ? (प्रसन्नता हो मुस्कराता है) आखिर एक वार से मैंने उसको गिरा दिया।
उसके गिरते ही मैंने तलवार उठाई और औरत की तरफ भागा। अरे! कहां गई? वह कहां गायब हो गई? मैंने सब जगह देखा, चारों ओर से आने वाली आवाजें गौर से सुनीं। वहां उसके आदमी की चीखों के सिवा कोई आवाज न थी। कहीं हम दोनों के युद्ध के दौरान ही वह मदद के लिए तो नहीं दौड़ी ? यह विचार आते ही मैं घबराया। मैंने खुद को वहां
122 • अनेकांत विशेष
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असुरक्षित पाया। जल्दी से उसके पति का तीर-कमान उठाकर मैं उसी रास्ते से भाग निकला, जहां से आया था। भागते वक्त मैंने उसके घोड़े को सड़क पर खड़ा पाया। वह मजे में चर रहा था। इसके बाद मैं कहां गया, यह सब कहने की कोई सार्थकता नहीं है। एक बात जरूर है कि शहर में लौटते वक्त मेरे हाथ में तलवार नहीं थी। वह पहले ही कहीं फेंक दी थी। मेरे अपराध का यह हवाला है। मुझ जैसों से लिए प्राणदंड ही ठीक रहता है, (ढीठ होकर) लेकिन मेरी प्रार्थना है कि उससे बढ़कर यदि कोई दंड हो, तो वह मुझे दिया जाए। शिमिजू मंदिर में आई एक महिला
इस आदमी ने मुझे समर्पण करने को विवश किया, फिर मेरे पति की तरफ देखने लगा। इसकी नजर में घोर अट्टहास था। आप खुद अनुमान लगा सकते हैं कि उसे देखकर मेरे पति किस कदर भयभीत हुए होंगे! दर्द के मारे वह छटपटा रहे थे। रस्सी उनके शरीर के भीतर ही भीतर धंसती जा रही थी। मैं पति के पास जाना चाहती थी और यह डाकू मुझे बार-बार जमीन पर गिरा रहा था। उस वक्त मैंने पति की आंखों में देखा। उनमें एक अजीब चमक थी, जिसने मेरे रोंगटे खड़े कर दिए। मुंह से निःशब्द होते हुए भी वह आंखों से सब-कुछ कह रहे थे। वह चमक क्रोध या दुख की नहीं, शिथिल घृणा भरी चमक थी। उस नजर की मार डाकू की मार से बड़ी लगी मैं बेहोश हो गई।
आंख खुलने पर मैंने देखा - डाकू भाग चुका था । मेरा पति अभी भी देवदार से बंधा पड़ा था। उसकी आंखों का कुत्सित भाव पूर्ववत् था। उनमें लज्जा भी थी। उसकी पूरी मनःस्थिति का वर्णन करना मुश्किल है। लड़खड़ाती हुई मैं उसके पास जाकर बोली, 'ताकिजिरो, हालात ऐसे हो चुके हैं कि अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकूंगी ! मेरे लिए मौत ही एक रास्ता है, लेकिन तुम्हें जिंदा देखना भी मुझे मंजूर नहीं है, क्योंकि तुम्हारे सामने डाकू ने मेरी इज्जत लूटी, मुझे अपमानित किया। इसलिए मैं तुम्हें जिंदा नहीं छोडूंगी।' मैं चुप हुई।
वह घृणा भरी नजरों से मुझे घूरे जा रहा था। मैं आहत हुई। मैंने उसकी तलवार खोजी, जो शायद डाकू लेकर भागा था। मैंने अपनी छोटी-सी तलवार निकाली और उसकी नाक की सीध में लगाकर बोली, 'लाओ, यह जीवन दे दो!"
वह कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था। पत्तों से उसका मुंह ठुसा पड़ा था। बुदबुदाते उसके होंठों से लग रहा स्वर्ण जयंती वर्ष
जैन भारती
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मार्च - मई, 2002
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