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ने अनेकांत को अंधकार में हाथ पर रखे दीपक के समान भगवान महावीर और उनकी आचार्य परंपरा के सहायक मानकर उसे नमन किया है। आचार्य सिद्धसेन ने मनीषी अहिंसा के इतने प्रबल पक्षधर रहे हैं कि वे किसी के कहा
विचारों की भी हिंसा नहीं करना चाहते। वे प्रतिपल जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ, सावधान हैं कि हिंसा की प्रतिक्रिया हिंसा ही है। उनके लिए तस्स भुवनेक गुरुणो णमो अणेगंतवायस्स। सर्वथा असत्य कुछ होता ही नहीं। हर कथन किसी-न-किसी
जिसके बिना लोक का व्यवहार भी भले प्रकार चल अपेक्षा से आंशिक सत्य होता है। महावीर का अनेकांत कहीं नहीं सकता, भुवन के उस एकमेव असाधारण गुरु तोड़ता नहीं, सर्वत्र जोड़ता ही है। विचार को विचार से, 'अनेकांत' को मेरा नमस्कार।
आचार को आचार से और मनुष्य को मनुष्य से जोड़ना ही आचार्य अमृतचंद्र देव ने अनंत नयों के समूह उस
अनेकांत का साध्य है। महान तत्त्व को इन शब्दों में प्रणाम किया है
अनेकांत दर्शन मिथ्यात्व और एकांत के हठाग्रह का परमागमस्य बीजं निषिद्ध जात्यंध-सिन्धुर-विधानम्,
विमोचक होने से मोक्षमार्ग में तो उपयोगी है ही, परंतु वह सकल नयविलसितानां, विरोध-मथनं नमाम्यनेकान्तम् ।
लौकिक जीवन को सुधारने और संस्कारित करने का भी
अमोघ उपाय है। जो परम आगम का बीज है : जैन आगम का प्राण है, जिसने जन्मांध पुरुषों के द्वारा टटोले गए हाथी के, आधे
अनेकांत हमें दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की अधूरे और परस्पर विरोधी अनुमानों का, अथवा एकांतवादी
प्रेरणा देता है और आपेक्षिक सत्य के रूप में उसे स्वीकार दार्शनिक-व्याख्याताओं की भ्रामक
करने की उदारता हमारे भीतर उत्पन्न करता है। अवधारणाओं से निष्पन्न, सकल
अनेकांत की इस उदारता में वैचारिक-विकारों का सम्यक्
से सहिष्णुता का जन्म होता है। वर्तमान में हमारी इंद्रियों की सामर्थ्य, समापन कर दिया है, और जो
मानव स्वभाव में सहिष्णुता आने प्रकाश, चश्मा आदि साधक कारणों परस्पर-सापेक्ष, अनंत, नयों से
पर सह-अस्तित्व की भावना को के सद्भाव तथा इनके बाधक कारणों विभूषित, उन नयों की के अभाव की अनिवार्यता ने हमारे
बल मिलता है। सह-अस्तित्व की विवक्षाओं-अपेक्षाओं एवं ज्ञान को सीमित तो किया ही है,
भावना भाईचारे और पारिवारिक उपेक्षाओं की संभावनाओं का
पराधीन भी बना दिया है। ऐसी दशा सुख-शांति से लेकर मनुष्य को संरक्षक बनकर, हर हठाग्रह को में वस्तु को सही रूप में देखने-जानने विश्व-बंधुत्व की ऊंचाइयों तक हटाने वाला और चिंतन की तरंगों का एक ही उपाय है कि जब हम
पहुंचाने की सामर्थ्य रखती है। में व्याप्त समस्त मिथ्या-मल को वस्तु का कोई भी रूप अपने सामने
अनेकांत का चिंतन समता शमन करने वाला है, उस देखें और जानें, तब बिना किसी
को जन्म देता है। एकांत से 'अनेकांत' को मैं नमन करता हूं। हठाग्रह के, अपने जानने के अधूरेपन
विषमता का जन्म होता है। सापेक्षता, विवक्षा, अपेक्षा,
को स्वीकार करें और जो जितना हमसे अनजाना रह गया है, उसका
अनेकांत की क्यारी में स्याद्वाद और समन्वयवाद ये
निषेध न करें। पदार्थ में ऐसे अनंत विनय, वात्सल्य, स्वीकृति और सब अनेकांत के ही समानार्थी गुण-धर्मों की स्वीकृति के लिए
विचार-विमर्श के सुमन खिलते हैं। शब्द हैं। आइन्स्टीन द्वारा
अवकाश छोड़ दें जिनके होने की पूरी एकांत से निषेध और संघर्षों की प्रतिपादित सापेक्षवाद—'थ्योरी संभावना प्रत्येक पदार्थ में है।
फसल उगती है। आफ रिलेटिविटी'—का मूलमंत्र अनेकांत ही है। अनेकांत की
अनेकांत वैचारिक अहिंसा विशेषता यही है कि वह कभी कहीं टकराता नहीं। वह तो
का नाम है। एकांत या हठाग्रह एक एक-दूसरे की भावनाओं को तथा हर पदार्थ में निहित प्रकार की मानसिक हिंसा है। विभिन्न संभावनाओं को समझने की एक सुगम और अनेकांत के माध्यम से ही महावीर द्वारा परिभाषित सदाशयपूर्ण पद्धति है।
'भाव-हिंसा' का मूलोच्छेद संभव होता है।
स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
102 • अनेकांत विशेष
मार्च-मई, 2002
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