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भारतीय चिन्तन को परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
जो भी राजा हो, उनके लिए नियम से भेद नहीं है । मनु की व्याख्या करते हुए कुल्लूक भट्ट ने कहा है - तच्च तत्कार्यकारिणां त्रिप्रवैश्यशूद्राणामविशिष्टमेव । आज जो यह सोचना कि भारत में शूद्रों की बड़ी दुर्गति थी, उनको मनु, याज्ञवल्क्य, महाभारत एवं रामायण का अध्ययन निरपेक्ष दृष्टि से करना चाहिए ।
विदुर के चरित्र की ओर दृष्टिपात से यह सहज अवगति होती है कि विदुर का स्थान धृतराष्ट्र और पाण्डु से कम नहीं था । पाण्डु ने अपनी यात्रा के प्रसंग में विदुर को ही धृतराष्ट्र से अतिशय महत्त्वपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित किया था । अत: ज्ञान और आचार के आधार पर ही व्यक्ति का महत्त्व स्वीकार किया गया है । अहिंसा का अर्थ है अपने शत्रु से भी प्रेम करना ! जिसके साथ प्रेम करता है, मनुष्य उसको न तो धोखा देता है और न उससे भयभीत होता है । जीवन दान सबसे बड़ा दान है और अहिंसा के लिए निर्भयता और साहस एकान्त रूप से अपेक्षित है । अम्बरीष का उदाहरण देते हुए सिद्ध किया जा सकता है कि वह अपने स्थान पर खड़ा रहा, और दुर्वासा ने जो कुछ बुरा से बुरा करना चाहा, वह सब कुछ कर डाला पर उसने अंगुली नहीं उठायी । अम्बरीष का साहस प्रेमजन्य था । उसके अनेक भाषणों से जो अहिंसा का तात्पर्य व्यक्त होता है, वह द्रव्य हिंसा या मैत्री है'करुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्याविषयाणां भावनातश्चितप्रसादनम्' योग० (१।३३), अतः पर पीड़ा का निषेध ही अहिंसा का तात्पर्य है ।
इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि यह हिंसा निकृष्ट चित्तवृत्ति का निरोध है । जो साधन चतुष्टय की सम्पत्ति के बाद अभेद की भूमि पर प्रतिष्ठित होने पर या तन्मयता सम्पन्न व व्यक्ति या शरणागति के बाद स्व पर भेद शून्य अनाशक्त जीवन व्यतीत करने वालों के लिए सहज आचरणीय है ।
भारतीय दर्शन - परम्परा अनेक को एक में उपसंहृत करती हुई उस सत्य की भूमि पर प्रतिष्ठित है । अद्वैत भूमि में न द्वेष है, न राग है, न आशा है, न आकांक्षा है, न भय है, न जरा है, न मृत्यु है । अतः गांधी का सिद्धान्त गीता के द्वितीय अध्याय के अर्थ के अनुसार ज्ञान एवं नित्यानित्यवस्तुविवेकसम्पन्न व्यक्ति की निष्ठा पर प्रतिष्ठित है । अधिकारी के बिना इसके द्वारा अनर्थ साधन की अधिक सम्भावना है । सत्ययुग को उस सत्य का प्रतीक मानकर, उस आश्रय पर प्रतिष्ठित सांसारिक क्तियों के लिए ही यह परपीड़ा शून्य क्रान्ति चल सकती है। अतः मानव चित्तवृत्ति को दर्शन के द्वारा संयत करने पर ही गांधी जी ने बल दिया है, जिससे अभेद का
परिसंवाद - ३
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