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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
महात्मा गान्धी किसी सिद्धान्त विशेष के या दर्शन विशेष के प्रवर्तक आचार्य नहीं थे । उन्होंने तो केवल हिंसा, घृणा, द्वेष आदि के द्वारा लोकमंगल का ध्वंस करनेवाले जो क्रूर संघटन बन गये थे, उनका विघटन करने के लिए सनातन काल से विद्यमान सत्य, अहिंसा आदि तत्त्वों को विश्वविजयी शक्ति से सम्पन्न अमोघ शस्त्र के रूप में प्रस्तुत किया । इसलिये वे सफल प्रयोगशास्त्री थे और इसीलिए
गांधीवाद एक प्रयोगात्मक दर्शन है ।
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आज का मानव जीवन चारों ओर से राजनीति से घिरा हुआ है । राजनीति के बारे में आम धारणा है कि वह वेश्या के समान बहुरूपिणी एवं अन्याय, झूठ, धोखा आदि की प्रसविणी है । ' प्रधान शत्रु को ही सबसे पहले समाप्त करना चाहिये'- - इस नीति के अनुसार ( प्रधान मल्लनिबर्हणन्यायेन ) उन्होंने राजनीति के दोषों को हटाने के लिए सर्वप्रथम अपना कार्यक्षेत्र उसे ही बनाया । राजनीति में भी यम, नियमों के पालन को आवश्यक बतलाकर उन्होंने त्यागी, तपस्वियों के लिए भी समाजसेवा का आध्यात्मिक पथ उद्घाटित किया । अध्यात्म की साधना का यह अंश अथवा अध्यात्ममूलक नीति का यह प्रयोग सर्वथा नवीन था, इसलिये सनातन सत्य की तदनुकूल गांधीवादी व्याख्या सत्य की प्रचलित प्राचीन व्याख्याओं से बहुत कुछ भिन्न हो जाती है । इसलिए सत्य आदि शब्दों का अपने पुराने संस्कारों के कारण जो अर्थ भासित होता है, उसे छोड़कर भिन्न व्याख्या करना चाहिए । उसके निर्देश का यहाँ प्रयास किया रहा है ।
जो सब देश और सब काल में सत् है, वह सत्य है । असत् का किसी भी तरह अस्तित्व नहीं होता । इसलिए सत् ही विश्व का आधार एवं उपादान है । इस प्रकार के सत्य का शुद्ध चेतनरूप होना और ज्ञानरूप होना भी अनिवार्य है । ऐसे सत्य का देश और काल से परिच्छिन्न देह के साथ सम्बन्ध होता असम्भव है । इसलिए सत्य या ईश्वर का वाणी और मन से अगोचर, अनादि, अनन्त, सत्, चित् आनन्द एवं निर्गुण स्वरूप निश्चित होता है । इस सत्य का साक्षात्कार ही मनुष्यों का परम पुरुषार्थ है वही जीवन का लक्ष्य है । यही परम सत्य भी कहलाता है । क्योंकि सत्य ही विश्व का अधिष्ठान है इसलिए असत्य की दृश्यमान सत्ता भी सत्य को आलम्बन करके ही खड़ी होती है । इसी कारण असत्य के अन्तस्तल में भी सत्य ही विराजमान रहता है। साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने दैनिक जीवन में सत्य के अन्वेषण के लिए लगातार धैर्य पूर्वक अभ्यास करता रहे। सत्य का यही व्यावहारिक
परिसंवाद - ३
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