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गांधीचिन्तन की सार्थकता
गांधीजी व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध पर तथा उनकी मर्यादाओं के सामंजस्य पर जोर देते थे। उनकी धारणा थी कि 'मनुष्य स्वतन्त्र और अन्योन्याश्रित' दोनों है। मानव-व्यक्तित्व का आदर और उसकी स्वतन्त्रता की रक्षा समाज़ का कर्तव्य है। जीवन की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति मानव का अधिकार है । स्वतन्त्र मानव ही समाज की सच्ची ठोस सेवा तथा अपने जीवन का उत्कर्ष कर सकता है। पर समाज में मर्यादित स्वतन्त्रता ही सम्भव है। अधिकार पर कर्तव्य का बन्धन है। दूसरों की स्वतन्त्रता को रक्षा तथा समाज की मर्यादाओं का पालन प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है उसकी स्वतन्त्रता पर यह अनिवार्य प्रतिबन्ध है। सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन, उनको सर्वथा उपेक्षा व्यक्तित्व के विकास के लिये भी घातक है। मानव 'सामाजिक प्राणी हैं', अपनी सामाजिक प्रवृत्तियों के विकास के लिये उसे सामाजिक सहयोग की जरूरत होती है। 'सामाजिक उन्नति की आवश्यकताओं से व्यक्तित्व को समन्वित करके ही मानव अपने मौजूदा पद और प्रतिष्ठा को प्राप्त कर सका है।' सम्पूर्ण समाज के कल्याण के निमित्त सामाजिक नियन्त्रण का स्वैच्छिक अनुवर्तन मानव और समाज दोनों को समृद्ध करता है। मानव कल्याण को समर्पित सामाजिक सेवा द्वारा व्यक्ति अपनी सामाजिक प्रेरणाओं को परिपुष्ट तथा नैतिक और आध्यात्मिक विकास की समृद्धि कर सकता है, मानवमात्र से अपना एकत्व प्रतिष्ठित तथा समत्व की सिद्धि कर सकता है।
गांधीजी का विचार था कि संसार और जीवन दोनों गतिशील हैं, परिवर्तन उनका लक्षण है. विकास उनका लक्ष्य है। मानव निरन्तर प्रगति कर रहा है। मानव स्वभाव तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में विकास सम्भव है। "नीच और पतित व्यक्तियों में भी उस ऊँचे से ऊँचे स्थान को प्राप्त करने की क्षमता है जो कभी कोई मानव प्राप्त कर पाया है। उन्नति के लिये प्रयत्न करना हमारा कर्तव्य है।" यदि हम उन्नति करना चाहते हैं तो इसके लिये हमें इतिहास की पुनरावृत्ति करना नहीं है, बल्कि नये इतिहास को बनाना है। आत्मोन्नति और राष्ट्रोन्नति दोनों के लिये साथ साथ प्रयत्न करना आवश्यक है । व्यक्तियों को उन्नति के बिना राष्ट्र की उन्नति तथा राष्ट्र की उन्नति के बिना व्यक्ति की उन्नति सम्भव नहीं है। जो व्यक्ति समाज का सुधार करना चाहते हैं, उन्हें पहले अपना सुधार करना चाहिए। तभी समाज पर उनका प्रभाव पड़ेगा और वे समाज की ठोस सेवा कर सकेंगे। नैतिक उत्थान में ही मानव जाति का विकास निहित है। वही मानव-विकास का मापदण्ड है। हमें नैतिक और बौद्धिक विकास के साथ-साथ मानव कल्याण और आनन्द की वृद्धि के लिये भी प्रयत्न करना है। सर्वोदय अर्थात् सबका, निकृष्ट से निकृष्ट का भी उदय और कल्याण हमारे प्रयासों का लक्ष्य होना चाहिए।
परिसंवाद-३
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