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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं और बुद्ध की ही परम्परा में उन्होंने एक नयादर्शन खड़ा कर दिया और वे दूसरे बुद्ध कहलाये।
इसी प्रकार जब महायान का इतना बड़ा विकास हुआ, तो शङ्कराचार्य आये । उसके कुछ कारण थे, राजनैतिक परिस्थितियाँ थी और सारी राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक परिस्थितयों के बीच में शङ्कराचार्य आये और उन राजनैतिक, धार्मिक परिस्थितियों के बीच में ही आज तक शङ्कराचार्य कायम हैं, उनका राज्य कायम है। यदि परिस्थितियाँ बदलेगी तो शङ्कराचार्य का सिद्धान्त बदलेगा। यह जो करपात्री जी कहते हैं कि हिन्दु सवंत्र है, शङ्कराचार्य का दर्शन वह नहीं रह जायेगा। वह सत्तात्मक है राज्य के अन्दर, समाज के अन्दर, होने से उसके साथ सम्बद्ध है। लेकिन यह विषय एक ऐसा विषय है जिस पर ज्यादा बोलना अभी सम्भव नहीं होगा। उसके लिए अलग से एक गोष्ठी होनी चाहिए।
कार्य-कारणभाव की एक बात जो कल पण्डित जी ने उठाई थी उस पर आता हूँ जिसको कि हर्षनारायण जी ने विलासिता के रूप में स्वीकार किया है। हम सब लोग परिचित हैं कि दर्शन की रीढ़ कार्य कारणभाव है। भारतीय दर्शनों के सारे चिंतन का, उपनिषदों से लेकर के अन्त तक, हम सब लोग जानते हैं कि कार्य कारण की व्याख्या के भेद से ही प्रस्थान भेद हो जाते हैं। यदि नया दर्शन अपेक्षित है तो कार्य कारण की पुनर्व्याख्या करनी होगी। कार्य-कारण के सम्बन्ध में बहुत सी व्याख्याएं करने से भारतीय दर्शनों का प्रस्थान भेद हो चुका है। लेकिन उसकी कुछ समान मान्यताएं हैं जो कि अपर्याप्त हो चुकी हैं।
ईश्वर एक विशेष स्थिति में स्थापित हुआ था, ईश्वर खण्डित हुआ एक विशेष स्थित में, आत्मा स्थापित हुआ एक विशेष स्थित में, आत्मा खण्डत भी हुआ। आवश्यकताओं के आधार पर ही यह सारा खण्डित हुआ। मन उस तरह का बना, समाज बना, राज्य बना, सारा बना। लेकिन कार्य-कारणभाव दर्शन में स्थापित हुआ उसी के अनुरोध पर । मैं समझता हूँ आज भी किसी स्थिति में कार्य-कारण में कारण को नित्य नहीं होना चाहिए। अगर कारण नित्य रहेगा, तो समाज परिवर्तनशील नहीं होगा, यथास्थितवादी होगा। इसलिए चाहे वह नित्यता कूटस्थनित्यता न हो, लेकिन परिणामी नित्यता भी अगर स्वीकार कर लिया जाये या परिणामवाद तक भी अगर हम परिवर्तन को स्वीकार कर लें, लेकिन परिणामवाद का केवल प्राकृतिक परिणाम नहीं-सारा आत्मासहित, पुरुषसहित, सांख्य के शब्दों में पुरुष, प्रकृति अगर सब परिणामी है। ऐसा मैं सांख्य में प्रवेश कराने की बाबत नहीं कहता
परिसंवाद-३
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