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दर्शन-दिग्दर्शन
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है ? सृष्टिविज्ञान या विश्वविज्ञान समस्त वाह्य जगत की वास्तविकता, अलगअलग विज्ञानों की जानकारियों का समन्वय है जो दर्शन का दूसरा विषय हो गया। मनोविज्ञान जब विज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त होता है तो उसका अर्थ है समस्त मानसिक क्रियाओं का परिगणन, उनका स्वरूप निर्णय, उनका एक दूसरे से सम्बन्ध तथा शारीरिक क्रिया के साथ सम्बन्ध । मनोविज्ञान जब दर्शन के एक अंग के अर्थ में प्रयुक्त होता है तब उसका विषय मानसिक क्रियाओं का वास्तविक स्वरूप जानना, उनकी उत्पत्ति या उद्भव कहाँ से है ? होता है। इस प्रकार के जितने भी प्रश्न सम्भव हैं, वे इस दर्शन के अन्तर्गत आ जायेंगे।
तत्त्वविज्ञान, सृष्टिविज्ञान और मनोविज्ञान का विभाजन यद्यपि मूल रूप से ईसाई धर्म के शास्त्रीय दर्शन में है और इनके इस वर्गीकरण का प्रयोग मध्यकालीन दार्शनिकों ने किया है तो भी लोत्ज़ नामक जर्मनदार्शनिक ने अपने ग्रन्थ में उसका निरूपण किया है। तब से अबतक इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में होता आ रहा है। काण्ट वे अपनी 'क्रिटिक आफ प्योर रीजन' अर्थात् शुद्धबुद्धिमीमांसा में यह शंका उठाई है कि समस्त जानकारी की क्रिया के पहले इसका असन्धान कर लेना चाहिये कि क्या ज्ञान के द्वारा वास्तविकता की अनुभूति सम्भव होगी। काण्ट ने कहा 'अब तक के सभी दर्शन रूढ़िवादी रहे हैं और इसलिये इस प्रवृत्ति का नाम उन्होंने रूढ़िवाद रखा। उन्होंने कहा क्यों न रूढ़िवाद के स्थान पर समीक्षा की विधि अपनाई जाय अर्थात् ज्ञान की सम्भावना की परिधि का निश्चय किया जाय। उन्होंने 'क्रिटिक आफ प्योर रीजन' में इसे किया और इसका नाम 'प्रमाणमीमांसा' रखा। दो शब्द उन्होंने अपने सामने रखे-१. सत्य और २. ज्ञान । उन्होंने इसका विश्लेषण किया कि ज्ञान से सत्य का सम्बन्ध क्या है ? ज्ञान और सत्य किसे कहें?
दर्शन का १९ वीं शती के अन्त में एक वर्गीकरण और हुआ। जिसमें आदर्शवाद और यथार्थवाद अर्थात् विज्ञानवाद और वस्तुवाद दो शब्द सामने आये। इनके भी अनेक भेद हुए।
अरस्तू यूनानी वैज्ञानिक तथा दार्शनिक ने अनेक विद्वानों के नामकरण किए, मानवज्ञान को अनेक विषयों में बाँटा। अनेक विज्ञानों पर पृथक पृथक दर्शन लिखे। जैसे सदाचारविज्ञान, राजनीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान । इनके अतिरिक्त वास्तविक तत्त्व क्या है इस पर भी उन्होंने एक ग्रन्थ लिखा। उनकी मृत्यु के उपरान्त उनके समस्त वाङ्मय' का वर्गीकरण किया गया। फीजिका के भीतर उन्होंने उन
परिसंवाद-३
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