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भारतीयचिंतन की परंपरा में नवीनदर्शनों की
सम्भावनाएं नया दर्शन कैसे ?
श्रीराधेश्यामधर द्विवेदी दर्शन को सभी सामा जक और वैज्ञानिक शास्त्रों का जन्मदाता माना जाता है और सच तो यह है कि दार्शनिक चिन्तक ने ही समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, ऐतिहासिक दर्शन तथा राजनीतिक दर्शन आदि को जन्म दिया है। भारत में भी दार्शनिक चिन्तन की एक प्राचीन परम्परा है और वह परम्परा आज भी नये चिन्तन के रूप में तो नहीं, परन्तु अध्ययन अध्यापन के रूप में अवश्य अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। प्राचीन भारत के ऋषियों के वचन एवं कर्तव्य में एकता थी, तभी तो ऋषि जैसा कहते थे उसके अनुरूप ही अर्थ सम्पन्न हो जाया करता था
ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति ।। दर्शन केवल एक सैद् न्तिक शास्त्र नहीं है बल्कि जीवन की वास्तविकताओं से उसका गहरा सम्बन्ध है। हमारा विश्वास है कि किसी विद्वान् को इस तर्क से कोई विरोध नही होगा। इसलिये भारत के दार्शनिकों को अपने परम्परागत चिन्तन एव सिद्धान्तों का विवेचनात्मक दृष्टि से पुनरीक्षण करना चाहिए तथा तर्क की कसौटी पर जा भारतीय मन्तव्य प्रमाणित नही हो पाते हैं, उनका साहस के साथ खण्डन कर देना चाहिए। तर्क और प्रमागों के आधार पर सत्य की स्थापना हो दार्शनिक चिन्तन को मूलभित्ति है। धर्म से दर्शन का यहीं पार्थक्य है। दर्शन जिस सत्य को प्रमाण के आधार पर मान्य मानता है, धर्म उस आस्था, विश्वास तथा गुरुवाक्य के आधार पर मानता है। भारतीय दार्शनिक इस विभेद को भुलाकर न जाने क्यों धार्मिक उपदेशों को ही दर्शन मान लेते हैं। इसीलिए हमारे यहाँ कई शताब्दियों से तर्क की प्रधानता न होने से आस्था के कारण नवीन चिन्तन नहीं उभर सका।
१. उत्तररामचरितम्-भवभूति
परिसंवाद-३
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