________________
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाए
दर्शन शास्त्र भी ज्ञान-विज्ञान सम्बन्धी शास्त्रों की भाँति पूर्णतया बौद्धिक प्रयास और तार्किक पद्धति पर आश्रित है। किन्तु उसकी दृष्टि उपयोगितावादी नहीं है, और यदि उसका कुछ सामाजिक प्रभाव हो भी सकता है तो वह इतना अप्रत्यक्ष और सूक्ष्म होता है कि सामान्य जन उसकी ओर आकृष्ट ही नहीं होता। यही कारण है कि ज्ञान विज्ञान के इस चरम उत्कर्ष के युग में दर्शन का महत्त्व बहुत कम हो गया है। आज के इस भौतिकतावादी और यथार्थवादी युग में इतना अवकाश किसके पास है कि वह केवल तत्त्वज्ञान या सत्य की उपलब्धि के लिए दर्शन शाब की दुर्गम बौद्धिक घाटियों को पार करे। दूसरी ओर दर्शन शास्त्र की सबसे बड़ी कमी यह है कि वह सत्यान्वेषक को असाधारण तो बना सकता है, पर वह असाधारण, अनाचारी और असामाजिक व्यक्ति को सामा-य, सदाचारी और सामाजिक बनाने में पूर्णतः असमर्थ है। वस्तुतः अतिशय बौद्धिकतायुक्त होने के कारण वह मानव के रागात्मक और सौन्दर्य बोधात्मक पक्ष का स्पर्श नही कर पाता । फलतः दर्शन शास्त्र और मानवता के व्यावहारिक गुणों के बीच सामंजस्य नहीं स्थापित हो पाता। इस तरह दार्शनिक ज्ञान अपनी जगह रहता है और दार्शनिक अथवा जिज्ञासु का जीवन अपनी जगह । दर्शनशास्त्र को पूर्णतः अधीन कर लेने के बाद भो. यदि कोई दार्शनिक केवल ऊपर-ऊपर से दार्शनिक और अन्तर से मानवता के गुणों से रहित और राक्षस के लक्षणों से युक्त है तो इसमें दोष दर्शन शास्त्र का ही माना जायेगा। सभी शास्त्रों और दर्शनों का ज्ञाता महापण्डितरावण अनाचार और अत्याचार का प्रतीक बन गया था। यह इतिहास-पुराण की बात है किन्तु आज वेदान्त के महापण्डित मुकदमेबाज हैं। पाणिनि और भतृहरि के ज्ञान को हस्तामलकवत् आयत्त कर लेने वाले भाषा पण्डित दूसरों का अकारण अहित करने वाले और तिकड़मबाज हैं तो यह स्वतः प्रमाणित है कि दर्शन और अन्य शास्त्र मनुष्य को वास्तविक मनुष्य बनाने में असमर्थ हैं।
अंतःचेतना के उच्चतम स्तर-प्रातिभ ज्ञान के स्तर को ही हम आधुनिक युग में मानव की मुक्ति का चरम साधक मानते हैं क्योंकि यह बौद्धिक संत्रास और पीड़ा से मुक्त होता है। वह मानवीय गुणों की पीठिका पर आधारित होता है और उसकी जड़ें मानव विकास के आदिम काल तक गयी हैं। वह स्वानुभूत और साक्षात्कृत ज्ञान है, वह बुद्धि का व्यायाम नहीं, व्यक्तित्व की उपलब्धि है। वह तर्क द्वारा, प्रमाणों द्वारा सत्य को सिद्ध नहीं करता, बल्कि अनिर्वचनीय अनुभवों को चारित्र्य की मूक वाणी में व्यक्त करता है। यह ज्ञान संस्कृति की चरम परिणति है, हजारों वर्षों से मानव संस्कारों में संचित सत्यों की जीवन्त अभिव्यक्ति है । वह
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org