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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
इस वर्गीकरण में भारतीयदर्शन के प्रथम विभाजकधर्म के रूप में श्रुति के प्रामाण्य या अप्रामाण्य को मान लिया गया है। इस मान्यता की सदोषता के सम्वन्ध में कुछ विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है ।
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(१) यहाँ श्रुति का अर्थ निश्चित नहीं किया गया है। प्रथम विकल्प में श्रुति का अर्थ वेद एवं वेद का अर्थ मन्त्र ब्राह्मण' माना गया। किंतु ऐसा करने पर उपनिषद् तथा उनके उपर आधारित दर्शन भी आस्तिक वर्ग से बाहर होने लगे, तब वेद को कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड भेद करके आरण्यक एवं उपनिषद को अवेद के अन्तर्गत लाया गया ।
वेद या श्रुति के इस परिष्कार के वाद भी ज्ञान का एक विशाल भण्डार जो आगम और तन्त्र के नाम से प्रसिद्ध था जिसके आधार पर अनेक दार्शनिक सिद्धान्तों का उद्भव हुआ था आस्तिक दर्शन में समाविष्ट नहीं हो रहा था । अतः उसका समावेश करने के लिए श्रुति शब्द के अर्थ का पुनः विस्तार किया गया और यह कहा गया कि श्रुति दो प्रकार की है वैदिकी एवं तांत्रिकी ।
(२) उक्त चर्चा से यह स्पष्ट है श्रुति शब्द का अर्थ अवसर के अनुसार बदलता रहा है ।
(३) श्रुति के सम्बन्ध में दूसरा विवाद पौरुषेयता एवं अपौरुषेयता का रहा है इसमें पौरुषेयपक्ष हठात् ईश्वर की मान्यता के लिए बाध्य है । अपौरुषेयपक्ष को शब्द नित्यता एवं बाह्य नित्यता मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है । ये दोनों मान्यताएँ शब्द प्रमाण या किसी उच्चतर अनुभूति की अपेक्षा रखती हैं | सामान्य अनुभव तथा सामान्य अनुभवाश्रित तर्क इन दोनों में से किसी एक को भी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नही है ।
(४) उच्चतर अनुभूति की प्राप्ति के उपरान्त व्यक्ति में आप्तता आ जाती है और आप्त के उच्चरित वाक्य में प्रामाणिकता मान्य है तो ऐसी स्थिति में यह भेद करना कि आस्तिक सम्प्रदाय के ऋषियों के हुए साक्षात्कार एवं उच्चरित शब्द प्रमाण है और नास्तिक सम्प्रदाय के ऋषियों के हुए साक्षात्कार एवं उच्चरित शब्द प्रमाण नहीं हैं, न्याय संगत नहीं हो सकता । यदि बुद्धवचन एवं जिनबचन को भी श्रुति का स्थान प्राप्त हो गया होता ( जो दुर्भाग्य वश नहीं हो सका ) तो निश्चय १. श्रुति - वेद है: वेद-मन्त्र ब्राह्ममणात्मको वेद: श्रुति द्वेधा-वेदिकी तान्त्रिकी चेति' ( मेधातिथि-मनुस्मृति )
परिसंवाद - ३
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