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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
(८) आधुनिक भारतीय परिवेश में अपेक्षित दर्शन-स्वतन्त्र भारत में अनेक ऐसी समस्याएँ हैं जिन पर दार्शनिक चिन्तन आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य हो गया है। हम अपने परिवेश में बाहरी विचारों तथा सिद्धान्तों से काम चलाने का प्रयास करते हैं किन्तु अनुभव के साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है कि यह प्रयास प्रन्थियों को सुझलाने के स्थान पर उन्हें और उलझाता जा रहा है, अतः इन समस्याओं पर गम्भीरता पूर्वक विचार कर निम्नलिखित दर्शन शाखाओं को स्पष्ट रूप देना आवश्यक प्रतीत होता है।
(१) शिक्षादर्शन आज की शिक्षा, शिक्षक, शिक्षार्थी, शिक्षा का उद्देश्य, शिक्षण संस्थाओं का स्वरूप आदि पर देश की आवश्यकता, अपनी संस्कृति, वर्तमान युग तथा विश्व में अपने देश की स्थिति को ध्यान में रखकर दार्शनिक चिंतन आवश्यक है, इसके बिना न तो शिक्षा फलवती हो सकती है और न शिक्षा संस्थाओं में उत्पन्न समस्याओं का समाधान ही हो सकता है।
(२) धर्मनिरपेक्ष समाजवाद का दर्शन भारत के लिए, जहाँ अनेक धर्म तथा अनेक प्रकार के वर्णभेद, जातिभेद व्यवसायभेद विद्यमान हैं। जहाँ परम्परावादिता आधुनिकता का सतत संघर्ष चलता है, अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होता है।
युग की आवश्यकता को देखते हुए भारत के लिए इसी प्रकार राजदर्शन, विज्ञानदर्शन आदि की अपेक्षा को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
अभी तक हमारे विश्वविद्यालयों में यूरोपीयदर्शन की ही भारतीयदर्शन के साथ तुलनात्मक अध्ययन की एक परम्परा बन पायी है। इस परम्परा को व्यापक बनाने की आवश्यकता प्रतीत हो रही है। और चाइनीज, अमेरिकन, इस्लाम एवं विश्व के अन्य विभिन्न दर्शनों के साथ भारतीयदर्शन के अध्ययन की भी अपेक्षा है।
उक्त विकल्पों की व्यापकता को देखते हुए यह निर्णय करना आज के विद्वानों के लिए आवश्यक हो गया है कि इनमें से किन-किन विकल्पों को भारतीयदर्शन में समावेश किया जाय और किनको नहीं ? हम यहाँ इसे प्रश्न रूप में ही छोड़ देना चाहते हैं और आशा करते हैं कि इस पर विचार विमर्श हो और भारतीय दर्शन के स्वरूप का स्पष्ट निर्धारण किया जाय, जिससे सामान्य पढ़ा लिखा व्यक्ति भी भारतीय दर्शन से एक निश्चित अर्थ समझ सके और विचारकों को भी खींचातानी का अवसर न रहे।
परिसंवाद-३
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