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भारतीय परम्परा के अनुशीलन से
नया दर्शन संभव
प्रो० डा. रघुनाथ गिरि यह एक जटिल प्रश्न है कि किस प्रकार के साहित्य को दर्शन का साहित्य माना जाय, क्योंकि अभी तक दर्शन की कोई सुनिश्चित परिभाषा नहीं बन सकी है। उसी प्रकार यह निर्धारित करना कि दर्शन का विषय क्या है ? यह भी एक कठिन कार्य है । दर्शन के अर्थ की इस अनिश्चयात्मकता को भारतीयविशेषण स्पष्ट करने के स्थान पर और भी जटिल एवं भ्रामक बना देता है। संभवतः यह विशेषण स्वरूप निर्देशक न होकर इतरव्यावर्तक ही हो सकता है। इस प्रकार 'भारतीयदर्शन' अभारतीयदर्शन से भिन्न का निर्देशक हो सकता है। किंतु इस प्रकार का द्विवर्गाश्रित विभाग किसी निश्चय पर पहुँचने के लिए पथ प्रदर्शक नहीं हो पाता। इसे स्पष्ट करने के लिए भारतीयदर्शन से निम्नलिखित विकल्पों में से किसी एक, कुछ, मा सभी का निर्देश किया जाय' इसे एक प्रश्न के रूप में ही यहाँ उपस्थित किया जा रहा है।
(१) सर्वदर्शनसंग्रह के आधार पर संगहीत दर्शन--श्री माधवाचार्य ने सर्वप्रथम अपने सर्बदर्शनसंग्रह ग्रन्थ में- चार्वाक, बौद्ध, जैन, रामानुज, पूर्णप्रज्ञदर्शन, नकुलीश, पाशुपत, शैव, प्रत्यभिज्ञा, वैशेषिक, नैयायिक, जैमिनी पाणिनिदर्शन, सांख्य, योग तथा शांकरदर्शन का संग्रह किया। इसी के आधार पर पाश्चात्य प्रभाव से प्रभावित भारतीय चिन्तकों ने भारतीयदर्शन नाम से अनेक ग्रन्थों का अंग्रेजी हिन्दी में प्रणयन किया है जिसमें प्रो० हिरियन्ना, डा. राधाकृष्णन वासगुप्ता, डा यदुनाथ सिन्हा, पं. बलदेव उपाध्याय, डा.उमेश मिश्र आदि अधिक ख्यात है। इन ग्रन्थों में यहां यथासंभव कुछ अन्य सम्प्रदायों का भी उल्लेख किया मया है जैसे वेदान्त के विविध सम्प्रदाय भास्कर- भेदाभेद, मध्व का द्वैत, निम्बार्क का द्वैताद्वैत, श्रीकण्ठ का शैव, विशिष्टाद्वैत, श्रीपति का वीरशैव, विशिष्टादल, वल्लभ का शुद्धाद्वत, विज्ञानभिक्षु का अविभागाद्वैत, बलदेव का अचिन्त्यभेदाभेद
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