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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाए
नहीं है बल्कि जीवन की एक गम्भीर समस्या है जिसे हल किये बिना मनुष्य को चैन नहीं मिल सकती है।
पाश्चात्यों का कहना यह है कि दर्शन सत्य को एक स्वतन्त्र खोज है, अतः उसे मोक्ष नामक लक्ष्य के बंधन में डालना ठीक नहीं है। परन्तु प्रश्न यह है कि यदि मोक्ष को लक्ष्य' न माना जाय तब भी तो सत्य' प्राप्ति का कोई उद्देश्य होना चाहिये। लाखों में दो एक व्यक्ति दार्शनिक होते हैं, बाकी लोग दर्शन की परवाह किये बिना जीवनयापन करते हैं और अपने को सफल और सुखी भी मानते हैं। इससे तो यह स्पष्ट होता है कि सांसारिक जीवन के लिए दर्शन की कोई आवश्यकता नहीं है, और यदि है तो वह अवश्य ही किसी असंसारी उद्देश्य के लिए ही है। पाश्चात्यों का कहना है कि सत्य की खोज से तरह-तरह के भ्रमों और अन्धविश्वासो से मुक्ति मिलती है, यही उसकी उपयोगिता है। मानव समाज में बहुत सी बुराइयां इन अंधविश्वासों के कारण हैं उनको दूर करके दर्शन समाज के लिए उपयोगी बन जाता है। कुछ अन्धविश्वास विज्ञान द्वारा हटाये जाते हैं, शेष को हटाने के लिये दार्शनिक विचार आवश्यकता है ।
पाश्चात्यों में दर्शन की उपयोगिता के विषय में एक दूसरी विचारधारा भी पाई जाती है। कहा जाता है कि जगत के विषय में सत्यों की खोज विज्ञान कर रहा है । दर्शन का काम यह है कि वह जीवन और समाज के विषय में ऐसे सिद्धान्तों की स्थापना करे जो व्यक्ति और समाज की दिशा-ज्ञान प्रदान करें। जैसे समाजदर्शन, राजनीतिदर्शन,आचार दर्शन, शिक्षा-दर्शन आदि दर्शन के उपयोगी क्षेत्र है और प्रत्येक युग में दार्शनिक का कर्तव्य है कि वह परिस्थितियों का अध्ययन करके उपरोक्त दार्शनिक सिद्धान्तों की स्थापना करे। दर्शन का काम समय की पुकार को समझना
और तदनुसार सिद्धान्त प्रस्तुत करना है। इसी से प्रत्येक युग में नये दर्शनों की आवश्यकता होती है । यह बात भारतीय दर्शन में नहीं पाई जाती है। - इन बातों से यह प्रकट होता है कि पाश्चात्य दार्शनिक दर्शन को केवल वर्तमान जीवन की समस्याओं तक ही सीमित रखना चाहते हैं। इसी से केवल अनुभव और विचार पर अवलम्बित रहना पसन्द करते हैं। जीवनोपरान्त मनुष्य का क्या होता है या क्या होगा यह उनकी समस्या नहीं है और यदि है भी तो वे उसे धर्म के क्षेत्र में रखना चाहते हैं ? दर्शन के क्षेत्र में नहीं हैं। क्योंकि धर्म श्रद्धा और विश्वास का आधार लेता है जब कि दर्शन स्वतन्त्र समीक्षात्मक विचार का । दर्शन और धर्म दोनों पृथक हैं किन्तु भारतवर्ष में दोनों का मिश्रण पाया जाता हैं जो ठीक नहीं माना जाता। परिसंवाद-३
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