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भारतीय चिंतन परंपरा में नये जीवन-दर्शन की अपेक्षा
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का आग्रह आज एक विश्वजनीन समस्या बन चुका है जो जीवन के विविध क्षेत्रों को सीमित बनाये हुए है। किन्तु भारतीय प्रतिभा की दोहरी कुण्ठा है (१) धर्माग्रह एवं (२) वादाग्रह। स्थिति का यह विश्लेषण यदि गलत नहीं है, तो भारतीय दार्शनिकों पर दोहरा भार आता है कि वे चिन्तन को सिर्फ धर्म-निरपेक्ष ही नहीं, एक कदम आगे बढ़कर वाद-निरपेक्ष भी बनावें। उपनिषदों, त्रिपिटकों आदि के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अन्य निरपेक्ष होकर स्वानुभव एवं स्वयं प्रकाश चिन्तन करना, भारतीय दर्शनों की मूल प्रेरणा के विरुद्ध नहीं है।
भारतीय दर्शन का नया आयाम : व्यवहार
जब हम दर्शन के क्षेत्र में नवीनता की बात करते हैं, तो इसका हमें बार-बार ध्यान रखना पड़ेगा कि भारतीयदर्शन चिन्तन के अनेक क्षेत्रों में विविधतापूर्ण एवं गम्भीर है, वास्तव में यह विश्वदर्शन है। इस स्थिति में किस ओर से नवीनता को अवसर मिल सकता है, इस पर बहुत ही उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से सोचना होगा। इसके लिए गम्भीर शास्त्रीयता में न जाकर भी इस प्रश्न पर दर्शन के आयाम एवं क्षेत्र-विस्तार की दृष्टि से विचार किया जा सकता है। भारतीय दर्शनों का आयाम पहले से भी यदि अधिक विस्तृत मान लिया जाय, जो आज के किसी भी दर्शन के लिये अपेक्षित है तो उतने मात्र से नये-नये प्रश्न उठेंगे और उनके समाधान के प्रसंग में मौलिक चिन्तन के लिये अवसर मिलेगा। उस स्थिति में अवश्य ही उसकी शास्त्रीयता भी परम्परागत न रहकर नवीन होगी। थोड़े में हम यहाँ देखें कि भारतीय चिन्तकों ने दर्शन का क्षेत्र और उसका स्तर क्या स्वीकार किया है। तत्त्वचिंतन की प्रायः सभी भारतीय परम्पराओं ने दर्शन का क्षेत्र एवं उसका स्तर श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन अथवा श्रुत, चिन्ता और भावना द्वारा स्पष्ट किया है। निदिध्यासन या भावना एक प्रकार से भारतीयदर्शन का चरमोत्कर्ष है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय दर्शन का लक्ष्य मनन एवं तर्क से परे हैं, और उसका प्रधान क्षेत्र भी वही हैं। इस पर से यह शंका होती है कि दर्शन का पुरुषार्थ एवं क्षेत्र मन से परे माना जाय ? उसके अन्तर्गत इसका उत्तर देने के लिये भारतीय दर्शनों की परम्परा तथा आधुनिक सन्दर्भ दोनों का ही ध्यान रखना होगा। परम्परा के अनुसार मन से परे को एक शब्द में अध्यात्म या श्रेय या निर्वाण कहा जाता है। मन के अन्तर्गत सम्पूर्ण व्यवहार, नीति, धर्म संस्कृति आदि है, जिसे प्रेय या शील कहा जा जाता है। उत्तर के स्पष्टीकरण के लिये इस प्रश्न का भी उत्तर सोचना होगा कि क्या श्रेय और प्रेय के बीच, अध्यात्म और व्यवहार के बीच कोई पुल है, जिससे दोनों ही तरफ
परिसंवाद-३
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