________________
२२३
भारतीय दर्शनों का नया वर्गीकरण परिचर्चा का संक्षिप्त विवरण रहे हैं। हमको इस क्षेत्र में देखना चाहिए कि हमारा चिंतन समाज से सम्बन्धित कुछ बना है या नहीं। यदि नहीं है तो इसके लिए प्रयत्न किया जाना चाहिए। क्या भारत विदेशी सामाजिक चिंतन को स्वीकार कर पायेगा, इस पर भी विचार होना चाहिए।
प्रो. राजाराम शास्त्री ने कहा धर्म और दर्शन को अलग करने में कठिनाई होगी। क्योंकि पारलौकिक सत्ता से मनुष्य का सम्बन्ध धर्म के द्वारा होता है। धर्म से हम साक्षात्कार करते हैं। उस साक्षात्कार का अनुभव तो करते हैं कहते नहीं। कहने में वह दार्शनिक बुद्धि पर आधारित होता है। यह साक्षात्कार स्वयं में प्रमाण है क्योंकि इसको समझाने के लिए बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है। बुद्धि संप्रेषण के लिए प्रतीकों के बल पर, उदाहरणों के आधार पर उसे बताती हैं। इसी को आप्तवचन के रूप में शास्त्रों में कहा गया है। सच में तो साक्षात्कृत सत्य प्रेषणीय नहीं है। क्योंकि प्रेषणीय भाषा समाज की देन है तथा सत्य का साक्षात्कार वैयक्तिक है। इस प्रकार विचारविमर्श के सन्दर्भ में दर्शन तथा भाषा का प्रश्न उठता है । शब्द प्रमाण या शास्त्र प्रमाण एक ही है और प्रमाणों का काम उस साक्षात्कृत धर्म से संवादित्व स्थापन है।
डा० कमलाकर मिश्र (का• हि० वि० वि०) ने कहा-दर्शन का कार्य सत्य को समझाना है उसके लिए तर्क ही उसकी विधि है। तर्क की सत्य तक गति है या नहीं ? यदि गति है तो हम कैसे जानते हैं कि गति है। यदि इस गति का सहारा बुद्धि मात्र है तो बुद्धि से ऊपर उसके अनुभव के data का सहारा लेना होगा। वह अनुभव धर्म के आधार पर ही होगा इसलिए ही दर्शन को धर्म पर आधारित रहना पड़ेगा।
बात को समझाने के लिए बुद्धि साधन है और बुद्धि तथा उसका तर्क अप्रतिष्ठित है, यह बुद्धि ही बतलाती है। इसलिए बुद्धि तथा अतिभौतिक तत्त्व का समन्वय ही धर्म और दर्शन का समन्वय होगा।
प्रो. जगन्नाथोपाध्याय ने पुनः विषय का स्पष्टीकरण करते हुए कहारहस्यात्मक कथन को धर्म नही कहा जा रहा है। यहां तो धर्म की पुस्तक, यज्ञविधान, ईश्वर जीव मिलन, चार आर्य सत्य आदि जैसी बातों से धर्म का तात्पर्य लिया जा रहा है। यहाँ यह तय करना है कि दर्शन की सीमा उपर्युक्त के विवेचन में है या इनसे पृथक् ।
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org