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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं उपर्युक्त विद्वानों ने भारतीय दर्शन किसे कहते हैं ? और उन सबमें सामान्य रूप से वह भारतीयता क्या है ? जो इन दर्शनो को अन्य धाराओं से ठगावृत्त करती है। इस विषय पर अपने-अपने विचार व्यक्त किये।
श्री रामशंकर त्रिपाठी ने पं० रघुनाथ शर्मा तथा पं. बदरीनाथ शुक्ल के इस मत की समीक्षा करते हुए कहा कि दर्शनों का विषयाकुसारी विभाजन ठीक नहीं है । यद्यपि उनका साम्प्रदायिक धार्मिक परिवेश में उद्गम एवं विकास हुआ है। फिर भी एक विषयक विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों का एक साथ अध्ययन करने से उस विषय के ज्ञान में व्यापकता एवं गम्भीरता तथा विकास में सहायता मिलेगी। उन्होंने आगे कहा कि भारतीय अद्वैत सिद्धान्त का ज्ञान तभी अधिक विकसित माना जायेगा जब कि शिवाद्वैत, शक्यद्वैत के साथ-साथ होगेल, कान्ट और बैडले आदि के अद्वैत का भी अध्ययन किया जाय। इसी प्रकार प्राचीन भारतीय विद्वानों ने परमाणु विषयक जो विचार प्रस्तुत किये हैं। उसके ज्ञान के लिए एक साथ ही वैशेषिक, वैभाषिक, सौत्रान्तिक एवं जैन दर्शनों के परमाणु विषयक ज्ञान का भी अध्ययन किया जाना चाहिए।
श्री हेब्वार शास्त्री ( रामघाट, वाराणसी) ने भारतीयदर्शन का दृष्टिसृष्टिवाद के आधार पर विवेचन किया। उन्होंने आत्यन्तिक आनन्द को दर्शन का उद्देश्य बताया। उन्होंने दर्शन के अध्ययन में विज्ञान की आवश्यकता को स्वीकार नहीं किया। उनके अनुसार विज्ञान के सिद्धान्त परिवर्तित होते रहते हैं। जब कि भारतीय दर्शनों के सिद्धान्त अनन्त वर्षों से एक समान कायम है।
प्रो० सी० एन० मिश्र ( दर्शनविभाग-भागलपुर ) ने पंडित रघुनाथ शर्मा एवं पं० बदरीनाथ शुक्ल का समर्थन करते हुए कहा कि भारत में उत्पन्न विचार भारतीय दर्शन है। उन्होंने दुःख निवृत्ति में भारतीय दर्शनों की सर्व सम्मत ऐक्य धारणा को स्वीकार करते हुए धर्म दर्शन के ऐक्य पर विशेष जोर दिया।
डा० के० एन० मिश्र ( दर्शनविभाग, का. हि. वि. वि. ) ने भारतीय दर्शन की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा कि यद्यपि भारत में उत्पन्न लोगों का चिंतन ही भारतीय दर्शन है। किंतु विस्तृत काल के परिप्रेक्ष्य में देश-काल-परिस्थिति तथा भौगोलिक सांस्कृतिक तथा राजनैतिक परिवर्तनों को भी ध्यान में रखना होगा। बृहत्तर भारत के काल में उस समय के समस्त उत्पन्न विचार भारतीय दर्शन ही हैं।
परिसंवाद-३
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