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इति स्थितम ( विश्वनाथशास्त्री दातार ) । इसी प्रकार की परम्परावादी प्रवृत्ति एक अन्य पंडित में भी दिखलाई पड़ती है जो मति की वकालत तो करते हैं पर वह नीति शास्त्रात्मक निर्दिष्ट मति को ही मानते है। इस प्रकार कहते हैं-अतो गुरुपरम्पराप्राप्तवैदिकदर्शनानामुल्लंघनं कदापि हितावहं न भवेदिति (पं० राजराजेश्वरशास्त्रो) इस प्रकार प्राचीन एवं नवीन तथा सुधारवादी-परम्परा के विद्वानों के मत समाज दुःख को समाप्त करने के पक्ष में है पर उनकी सरणी में अन्तर है, लगता है कि यह सारा भेद कल्पित मात्र है। सच में तो सभी प्राणियों के साथ समत्वभाव एव तदनुरूप भूमि पर आचरण में प्रवृत्ति लगाना आवश्यक है। यह जब तक निष्पन्न नहीं होता तब तक सारे कथोपकथन व्यर्थ हैं अतः समष्टि के साथ समत्व ही क्रिया योग है जो कतिपय मानव मूल्यों अर्थात् अहिंसा एवं अनुष्ठान के द्वारा निजी उत्कर्ष तथा अन्य के उत्कर्ष के भी साधक एवं प्रेरक हैं।
प्रस्तुत परिसंवाद के संपादक तथा संयोजक श्रीराधेश्यामधर द्विवेदी हमारे विभाग के सक्रिय सदस्य हैं और इनकी यह सतत इच्छा है कि सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से एक ऐसी चिन्तनधारा प्रवाहित हो जो सम्पूर्ण मानवता की रक्षा में सबके ध्यान को आकृष्ट करे । एतदर्थ इस विषम युग में इतना बड़ा संकल्प लेकर चलना कठिन लगता है, पर साधक को अपने आदर्शों पर दृष्टि एवं आस्था रखकर काम अवश्य करना चाहिए। तुलनात्मकधर्मदर्शनविभाग के छात्र भी इस दिशा में सहायक होंगे। इसी आशा से मैं अपने विभागीय कृति को लोकहित सम्पादन के लिए आवश्यक मानता हूं तथा तदर्थ सब आयोजकों को धन्यवाद देता हूं कि वे लोकहित में और अधिक तत्पर हों।
-महाप्रभुलाल गोस्वामी
अध्यक्ष-तुलनात्मक धर्मदर्शन सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी
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