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भारतीय दर्शनों के वर्गीकरण पर एक विचार
शक्ति के अनेक नाम हैं' इसी प्रकार प्राचीन यूनान में अपोलो और एघिना का स्वरूप है, साथ ही हिब्रू जाति में स्थान है ।
प्राचीन भारत की सभ्यता, संस्कृति और दर्शन के विकास की प्रक्रिया से बहुत कुछ मिलता हुआ ग्रीस देश की सभ्यता, संस्कृति और दर्शन है । ग्रीक दार्शनिकों सर्वप्रथम जड़ जगत् का विवेचन किया। आगे चलकर चैतन्यस्वरूप आत्मा का और बाद में जड़ और आत्मा के समन्वयात्मक रूप तत्त्व [ Matter ] को स्वीकारा । जिस प्रकार ग्रीक दर्शन के प्रारम्भिक विचारक जगत् या ब्रह्माण्ड के कारण की परिकल्पना अर्थात् -- यह जगत् जल, अग्नि, वायु किसी एक अव्यक्त द्रव्य और परमाणु आदि का परिणाम है, मानते थे । वहीं भारतीय वैदिक ऋषि जल, अग्नि, वायु आदि पर देवत्व आरोपित कर आवाहन करते हुए दीखते हैं, जिसकी मान्यता आज भी भारत में है ।
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कहा जाता है कि ग्रीक दर्शन का प्रारम्भिक चिन्तन प्रकृति दर्शन है, और उसी के अन्तर्गत ज्योतिष, गणित, प्राकृतिक ज्ञान की सम्पूर्ण शाखाओं तथा औषधिविज्ञान तक को दर्शन की सीमा में रखा गया था । वास्तव में इन विचारकों को आध्यात्मिक और भौतिक तत्त्वों में भेद का ज्ञान नहीं था । समय के अविरल प्रवाह में एक्जिमेण्डर ( Anaximander ) ने तर्क के अभाव में भी मनस को जगत् का मूल घोषित किया। आगे पाइथागोरस ( Pythagoras ) ने द्रव्य ( Matter ) और मन, शरीर और आत्मा, तथा ईश्वर और जगत के भेद को निरूपित किया था । किन्तु पाइथागोरियन्स भी गणितीय रहस्यवाद के कारण आध्यात्मिक दर्शन का विकास करने में अक्षम रहे । आगे सोफिस्टो ने अपने सन्देहवादी और वितण्डावादी सिद्धान्तों के जरिए एक ऐसी पद्धति को जन्म दिया जो व्यावहारिक रूप से लाभप्रद थी । इस निकाय का सिद्धान्त व्यक्तिवादी तथा स्वार्थपूर्णता से ओतप्रोत था, और औचित्यानौचित्य का मानदण्ड मानव की संवेदनाएं और आकांक्षाएं ही थीं ।
१. एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति । ऋग्वेद १।१६४।४६
२. ग्रीक दर्शन पृ० १५
भी ज्यू अ, पोसीडान, जेहोवा का भी यही
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इसके पश्चात् सुकरात ( Socrates) नामक ओजस्वी महापुरुष ने प्रत्यय को एक उच्चतर सत्ता के रूप में स्वीकार करते हुए चिन्तनशील तत्त्व अन्तश्चेतना ( Spirit ) को शरीर से पृथक् मान, वस्तु और तत्त्व में भेद करते हुए तत्त्व को ही
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परिसंवाद - ३
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