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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
ने निर्देश किया है । विषयरहित चिन्मात्र सम्भावित नहीं है, अतः शून्यवादी माध्यमिक मत के सिद्धान्त का विश्लेषण प्रस्तुत होता है । 'असदेव सौम्येदमग्र आसीत् " यह श्रुति इस सिद्धान्त के समर्थन के लिए पर्याप्त है । यही बौद्धों के नैरात्म्यवाद का सार है । शून्यवाद की असद् रूपता को लेकर बौद्धों को नैरात्यवादी माना गया है । मृगमदवासनावसितवसन के संस्कार संक्रमण की दृष्टि से आत्मवाद का स्थान इस दर्शन में भी अक्षुण्ण है. अतः उदयन ने 'असदेव सौम्येदमग्र आसीत्' इसके आधार पर शून्यवाद की दृष्टि ही नैरात्म्यवाद की मूलभित्ति है ।
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उपासक को इस अवस्था से निवृत्त करने के लिए अर्थात् नैरात्म्यवाद के साम्राज्य से मनुष्य का उद्धार करने के लिए 'अन्धं तमः प्रविशन्ति ये के चात्महनो जनाः' इत्यादि श्रुतियाँ के आधार पर अग्रिम विश्लेषण प्रस्तुत होता है। यह वही स्थिति है जहाँ मानव आत्मा और विषय का विवेक दर्शन करता है, अर्थात् आत्मा अन्य है और विषय अन्य है । इस विवेक दर्शन या अन्यथाख्याति को ग्रहण कर सांख्य सिद्धान्त का उपक्रम और उपसंहार होता है । फलतः प्रकृति विश्व की जननी है, आत्मा निर्लेप है-- इस सिद्धान्त का अभ्युत्थान होता है ।, 'प्रकृतेः परस्तात्' इत्यादि श्रुतियों के द्वारा इसी सिद्धान्त का समर्थन हो रहा है ।
बौद्धों ने सांख्य दर्शन को अपने विवेचन का आधार अवश्य ही बनाया, किन्तु इससे आगे आ कर प्रकृति के असत्त्व के साथ चिद्रूप का भी असत्यत्व प्रतिपादन कर शून्यता के रूप में नैरात्म्य का समर्थन किया । अतः सांख्य में दो तत्त्व भिन्न रूप में. अवस्थित हैं और शून्यवाद में एक भी तत्त्व अवशिष्ट नहीं है । जब विषय नहीं है तब विषयशून्य ज्ञान का अस्तित्व कैसे सम्भव है ? यह इस सिद्धान्त का समर्थक तर्क है ।
इसी विवेक दृष्टि को लेकर इस तत्त्व शून्य शून्यवाद के श्रुति में कहा गया है- 'नान्यत् सत्' । आत्मा से अतिरिक्त कोई भी है । इस अवस्था में सत् ज्ञान स्वरूप आत्मा का ही सत्यत्व प्रतिपादन रहता है । इसी तात्त्विक विचारधारा को लेकर अद्वैत सिद्धान्त का उपसंहार होता है । यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह" इस श्रुति के द्वारा इसी मत का प्रतिपादन किया गया है । शब्द और मन से अतीत आत्मा का अस्तित्व कभी भी हेय नहीं हो सकता है, अतः शून्यवाद की स्थापना सम्भव नहीं है । आत्मस्वरूपमात्र में प्रकाश की अवस्था में विषय का दर्शन नहीं होता है । यह वही अवस्था है, जहाँ
परिसंवाद - ३
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खण्डन के लिए पदार्थ सत् नहीं
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