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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भवनाएं
पश्यति नान्तरात्मन्” ( क० उ० ) अनात्मवस्तु ग्रहणपटु-इन्द्रियग्राम बाह्य विषय वस्तु को ही दर्शन करती है और दृष्ट बाह्य वस्तु के परिप्रेक्ष्य में लोक कल्याण और राष्ट्र कल्याण की दृष्टि से अभ्युदय का निर्धारण करती है। किन्तु यह दृष्टि अन्तदार्शनिक चिन्ता की धारा से अनुस्यूत या अनुप्राणित न रहे तो चार्वाक दृष्टि से शरीर एवं कतिपय इन्द्रियों की दासता के रूप में बाह्य दार्शनिक चिन्ता के अनुरूप जीवनयापन की बाध्यता सम्मुख उपस्थित होगी। अतः इसे नियमित कर लोकषणा एवं राष्ट्रषणा की भावना को बलाधान करने के लिए एवं निष्काम कर्म के परिपोष के लिए कहा -कर्मभिर्मृत्युमृषयो निषेदुः प्रजावन्तो द्रविणमच्छमाना, अथापरे ऋषयो मनीषिणः परं कर्मभ्योऽमतत्वमानशुः" । इस प्रकार कर्म का प्राधान्य कर्म की विभूति सम्पत्ति अर्थात् कर्तव्य को ही नियन्ता के रूप से स्थापित की। फलतः ईश्वर और ब्रह्म का निषेध या विधि उन तत्त्वों के विश्लेषण के लिए अनुपयुक्त समझ उदार हो करके जीवन यापन के मार्ग को सदाचार या शिष्टाचार या श्रति प्रतिपादिताचार की दृष्टि से परिवाहित कर उपसंहृत किया।
यह कर्तव्य भावना की दृष्टि बुद्ध या महावीर के आगमन काल तक सर्वात्मक रहकर एकान्त रूप में व्यक्तिगत भावना या वैयक्तिक जीवन के अनुसार सुस्थिर हो चुकी थी, सार्वभौम भावना स्व-आत्मा की परिव्याप्ति शरीरायत्त होने के कारण स्वार्थ का सन्निधान दैहिक सुख अर्थात् ऐन्द्रियक विषय परिभोग में निहित था। राष्ट्र भावना एवं लोक कल्याण भावना सर्वथा तिरोहित थी।
आत्मभूत भावना के शव पर उपासना की प्रकर्षता के आधार पर आत्मा को अर्थाकार के रूप में दर्शन किया जाता है। चिद्रूप आत्मा अर्थाकार हो जाता है, वह विष्णु हो, कृष्ण हो, राम हो, शिव हो, बुद्ध हो, महावीर हो, जिस रूप में भी हो सर्वेश्वर्य सम्पन्न वह सर्वात्मक हो जाता है। इस अवस्था में ब्रह्म परिणामवाद, त्रिदण्डीमत एवं उपासक सम्प्रदाय का आगमन और उसकी व्याख्या महाकरुणा हृदय की आर्द्रता या द्रवीभाव से सम्पृक्त है। भगवदाकारता की सार्वभौम प्रतिष्ठा जड़ चेतन जगत् पर होने से भगवान् बुद्ध, भगवान् महावीर आदि की अभिव्यक्ति के साथ महाकारुण्य के सञ्चार से अहिंसा एवं रागद्वेष के अभाव की प्रतिष्ठात्मिका भगवत्ता मुखरित होती है किन्तु उपासक भगवत्ता का सार्वभौम स्वरूप केन्द्रित कर देता है, एक अर्थाकार उपास्य में और अखण्ड दार्शनिक चिन्ता का हाहाकार सुनने १. वात्स्यायन भा० ४-१-५९
परिसंवाद-३
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