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भारतीय समन्वय दिग्दर्शन
आचार्य डा० महाभुलाल गोस्वामी भारतीय दर्शनों की आलोचना करने पर यह प्रतीति होती है कि दार्शनिक सिद्धान्त सर्वथा परस्पर विरुद्ध हैं। आपात दृष्टि से परस्पर विरोध की अवगति तात्त्विक चिन्तन करने पर ज्ञानालोक में सर्वथा तिरोहित हो जाती है।
पाश्चात्त्य दर्शन का विश्लेषण व्यक्ति सापेक्ष होने से उनके वर्गीकरण में विशेष ऊहापोह की आवश्यकता नहीं होती है। देश, काल के साथ तत्त्वमीमांसा, प्रमाणमीमांसा, तर्कशास्त्र, कर्तव्यशास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र, मनोविज्ञान आदि के द्वारा दार्शनिक सिद्धान्तों का वर्गीकरण उपलब्ध है। भारतीय दर्शन की यह स्थिति नहीं है, इनके वर्गीकरण में अनेक विप्रतिपत्तियां सम्मुख उपस्थित हो जाती हैं। इसका प्रधान कारण एक अखण्ड सत्य का सर्वत्र अनुस्यत होना एवं जीवन के चरम लक्ष्य के रूप में मोक्ष का निर्धारित होना है। भारतीय दर्शन एक निश्चित तत्त्व पर आधारित है और वह बुद्धि से परे श्रुति के द्वारा सिद्ध है, जिसमें ननु, नच का अवकाश ही नहीं है। ऐसी स्थिति में परस्पर विरोध की कल्पना बुद्धि का विलास या चीत्कार ही माना जा सकता है।
आचार्य मधुसूदनसरस्वती ने भारतीय दर्शनों का समन्वयात्मक विश्लेषण शिवमहिम्नःस्तोत्र की व्याख्या में प्रस्तुत किया, जिसे आचार्य लक्ष्मणशास्त्री द्राविड ने खण्डनखण्डखाद्य की भूमिका में प्रस्तुत किया और उनके शिष्य महामहोपाध्याय डाक्टर श्री योगेन्द्रनाथ वागची ने अपने साङ्गोपाङ्ग विश्लेषण में समीक्षा किया। आचार्य सरस्वती ने वेदान्त कल्पलतिका ग्रन्थ में प्रकरण के विभाजन के द्वारा दर्शन के वर्गीकरण का मार्ग भी प्रशस्त किया।
अस्तु, समन्वयात्मक दृष्टिका प्राशस्त्य दर्शन की एकतानता की सिद्धि के साथ वर्गीकरण का मार्ग निर्देशक होगा, अतः १६ वीं शती के आचार्य का मन्तव्य शास्त्री जी की भङ्गिमा में प्रस्तुत कर रहा हूँ।
परिसंवाद-३
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