________________
भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण
१७३ शब्दों का अर्थ वस्तुतः ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी भी नहीं हो सकता है । पाणिनि सूत्र 'अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः' ( ४।४।६० ) की काशिका और सिद्धातकौमुदी दोनों ही नास्तिक उसे कहती हैं जो परलोक में विश्वास नहीं करता है।
परलोकोऽस्तीति यस्य मतिरस्ति स आस्तिकः । तद्विपरीतो नास्तिकः । (काशिका)। अस्ति परलोक इत्येवं मतिर्यस्य स आस्तिकः। नास्तीति मतिर्यस्य स नास्तिक: (सिद्धान्तकौमुदी, तद्वित, ठगधिकार) ।
परन्तु यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि बौद्ध और जैन दोनों ही परलोकवाद में विश्वास करते हैं। इसलिए यह स्पष्ट है कि 'नास्तिक' के वर्ग से बौद्ध और जैन को हटाना ही होगा। इसे ध्यान में न रखते हुए कतिपय आधुनिक दार्शनिकों ने भी अवैदिक दर्शन मात्र को नास्तिक दर्शन की संज्ञा देकर जहाँ-तहाँ भूल की है। ( देखिए Runes की Dictionary of Philosophy)। इसलिए उपर्युक्त तथ्य को ध्यान में रखते हुए भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण यदि 'आस्तिक' और 'नास्तिक' के भागों में किया जाय तो आस्तिक दर्शन के कोष्ठ में चार्वाकेतर सभी दर्शनों को रखना उपयुक्त होगा और नास्तिक के कोष्ठ में केवल चार्वाक रह जाएगा।
उपर्युक्त ईश्वरवादी-अनीश्वरवादी विभाजन का मूल भी भारतीय दर्शन के स्वभाव में न्यस्त नहीं समझा जा सकता है, क्योंकि यदि हम भारतीय दर्शन के सामान्य रूप पर विहंगम दृष्टि डालें तो ईश्वरवादिता का रूप अत्यन्त गौण प्रतीत होगा। उदाहरण के लिए परम्परागत दार्शनिक प्रस्थानों में से चार्वाक, बौद्ध और जैन की ईश्वर विरोधिता प्रसिद्ध ही है। प्राचीन सांख्य, वैशेषिक और मीमांसा ने भी ईश्वर विचार की कोई आवश्यकता नहीं समझी। पीछे चल कर प्रायः पौराणिक प्रभाव के कारण इन दर्शनों में ईश्वर के समावेश का प्रयास मिलता है। उनका यह प्रयास उनकी उक्ति से ही स्पष्ट हो जाता है :
प्रायेणव हि मीमांसा लोके लोकायती कृता ।
तामास्तिकपथे नेतु एष यत्नः कृतो मया ॥ योग दर्शन में 'ईश्वरप्रणिधानाद्वा' ( १।२३ ) और 'क्लेशकर्मविपाकाशपैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ( १।२४ ) जैसे सूत्र न तो दार्शनिक दृष्टि से बहुत आवश्यक समझे जा सकते हैं और महत्त्वपूर्ण ही। ईश्वर के विचार में जो सर्वकर्तृत्व,
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org