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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
दार्शनिक उच्चकोटि के धर्मशास्त्री होते थे। इसलिए वर्तमान जीवन के उन्नायक अध्ययन को भी दार्शनिक अध्ययन माना जाता रहा है जैसा कि याज्ञवल्क्य ने अपनी स्मृति में कहा है -"अयं हि परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम्"और उपनिषदों में "वे विद्ये वेदितव्ये" कह कर विद्या वेदन अर्थात् दार्शनिक अध्ययन को आवश्यक बतलाया गया है। और परापरा भेद बताकर अपरा में समग्र ऐहिक फलक विद्याओं का परा में निःश्रेयसफलक आत्मविद्या का समावेश किया गया है। अतः पूरे सम्बद्ध शास्त्रों को दर्शन के क्षेत्र में परिगणित करने पर उक्त आक्षेप का औचित्य स्वतः समाप्त हो जाता है।
परिसंवाद-३
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