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भारतीय दर्शनों के वर्गीकरण से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर
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बनाने का सर्वोत्कृष्ट आधार है। इस निर्भयता का समर्थक होने से दर्शनों को आस्तिक के सम्मान जनक शब्द का व्यवहार करना उचित जान पड़ता है। और जिन्हें आत्मा को एकान्त नित्यता नहीं स्वीकार है, उनके अनुसार आत्मा में किसी न किसी रूप में अनित्यता का गन्ध आता है। जो मनुष्य को पूर्ण निर्भय बनाने में बाधक है। अतः इस दृष्टि से आस्तिक-नास्तिक कहा जाता है।
(ग) तीसरा आधार है मनुष्य के सभी शुभाशुभ कर्मों के साक्षी रूप में ईश्वर के अस्तित्व का स्वीकार या अस्वीकार । जिन दर्शनों में मनुष्य के शुभाशुभ कर्मों का साक्षी माना जाता है। वे दर्शन मनुष्य को अशुभ कर्मो से दूर करने में सहायक हैं जिससे मानवीय चरित्र की रक्षा स्वाभाविक है। अत: ऐसे दर्शनों को आस्तिक' कहना इस दृष्टि से नितान्त उचित है किन्तु जिन दर्शनों में ऐसे सामी को स्वीकार नहीं किया गया, उनमें मनुष्य को अशुभ कर्मों से बचने में पूरी सहायता नहीं मिलती है क्योंकि मनुष्य अशुभ कर्मों का साक्षी न होने की स्थिति में अशुभ कमों में कदाचित प्रवृत्त भी हो पाता है।
३-भारतीय दर्शनों के विषयपरक विभाजन की संभावना के सन्दर्भ में इस प्रकार विचार प्रस्तुत किया जा सकता है कि विभिन्न भारतीय दर्शनों में प्रतिपाद्य विषयों की बहुलता है, उन विषयों में कुछ ऐसे भी विषय हैं जो सभी दर्शनों में समान रूप से परिगृहीत हैं। यदि विषयपरक विभाजन किया जायेगा तो ऐसे सामान्य विषयों के आधार पर ही किया जायेगा, किन्तु ये विषय उन उन दर्शनों में वर्णित अन्यान्य विषयों से अनुबद्ध हैं, अत: यदि केवल समान विषयों के आधार पर दर्शनों का विभाजन होगा तो अनुवद्ध विषय के छूट जाने से विभाजन के आधारभूत समान विषयों का भी समग्र रूप से बोध न हो सकेगा। अतः विषय परक विभाजन की उचित उपयोगिता नहीं प्रतीत होती है। उदाहरण के लिए दर्शनों का अद्वैतवादी द्वैतवादी दर्शनों के रूप में विभाजन करना इसलिए उचित नहीं हो सकता क्योंकि शांकरवेदान्त, शून्यवाद और विज्ञानवाद में स्वीकृत अद्वैत के आधारभूत विषय भिन्न-भिन्न हैं। अतः जिन दर्शनों को अद्वैतवादी कहा जायेगा उनके अद्वैत का अध्ययन उन आधारों के साथ ही करना होगा। फलतः प्रत्येक अद्वैतवादी दर्शन का अध्ययन अलग-अलग हो जायेगा। इस दृष्टि से इस विभाग का कोई औचित्य नहीं होगा। हां आस्तिक नास्तिक दर्शनों के रूप में विभाग करने पर जिन अद्वैत प्रतिपादक दर्शनों के मानावमान की धारणा बनती हैं उनका परिहार करने की दृष्टि से इस विभाग को यदि स्वीकृत किया जाय तो इसमें कोई अनौचित्य नहीं है, यही स्थिति द्वैतवादी दर्शनों के सम्बन्ध में भी है।
परिसंवाद-३
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