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भारतीय दर्शनों के नये वर्गीकरण की दिशा
प्रो० जगन्नाथ उपाध्याय शताब्दियों पूर्व से नवीन भारतीय चिन्तन अवरुद्ध हो चुका है। इसे प्रायः सभी मनीषियों ने स्वीकार किया है। इसके कारणों की पूरी खोजबीन होनी चाहिये। किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पूर्व भारतीयचिन्तन के स्वभाव पर भी ध्यान देना आवश्यक होगा।
भारतीय दर्शनों का परम्परागत वर्गीकरण स्वाभाविक था, क्योंकि अन्य सभी देशों की तरह यहाँ भी दर्शनों का उद्गम एवं विकास धर्म के गर्भ से हुआ। भारतवर्ष सदा से ही धर्मों एवं संस्कृतियों की विविधता से परिपूर्ण रहा है। इसलिए यहाँ प्रमुख धर्मों का अनेकानेक उपधर्मों एवं सम्प्रदायों में विकास हुआ। इन सबका संस्कृतिगत आदर्श और आचारगत जीवनचर्या में भेद एवं कुछ हद तक विरोध भी था। इस प्रकार की विविधता के बीच जिन विचारों का उद्गम हुआ, उन्हीं के आधार पर आगे चलकर भारतीय दर्शनों का निर्माण सम्भव हुआ। इस प्रकार के विविध दर्शनों के विकास के पीछे विभिन्न संस्कृतियों एवं धार्मिक सम्प्रदायों की विविधता एवं विशेषता प्रमुख कारण बने रहे। यह भी देखा जाता है कि दार्शनिक विकास ने एक ओर अपने विशेष धर्मों एवं संस्कृतियों को महत्त्व प्रदान किया तो दूसरी ओर उनके बीच विरोधों का यथासम्भव शमन कर उनमें एक प्रकार का सादृश्य एवं एकता भी प्रदान की। विशेषतः इस प्रकार के महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न किया है-साधना के क्षेत्र में योगशास्त्र ने, दर्शन के क्षेत्र में तर्कशास्त्र ने और जीवन के समान उद्देश्य के निर्धारण की दृष्टि से मोक्ष चिंतन ने। इस देश के सम्पूर्ण चिन्तन को इन्हीं प्रमुख प्रवृत्तियों ने भारतीयता प्रदान की है। इसी की पृष्ठभूमि में यहाँ के सम्पूर्ण चिन्तन को 'भारतीय-दर्शन' के नाम से संकेतित किया जा सकता है।
कहा जाता है कि इतिहास काल में जिन धर्मों एवं सम्प्रदायों ने भारतीय दर्शनों के विकास के लिए अवसर प्रदान किया, आगे चल कर वे ही उसके नवीन
परिसंवाद-३
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